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अष्टाध्यायी के वृत्तिकार
शेषकृष्ण का स्वर्गवास हो गया था, इसमें कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है । यह अधिक सम्भव है कि विट्ठल ने शेष कृष्ण को जीवित रहते हुए भी किन्हीं कारणों से वीरेश्वर से अध्ययन किया हो। हमारा विचार है कि शेष कृष्ण वृद्वावस्था में काशीवास के लिये काशी चले गये हों
वहीं भट्टोज दीक्षित ने व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया हो । ५ इसके साथ ही यह भी सम्भव है कि शेष कृष्ण चिरजीवी रहे हों,
र उनके अन्तिम काल में भट्टोज दीक्षित ने शिष्यत्व ग्रहण किया हो । यह बात प्रमाणान्तर से परिपुष्ट हो जाये, तो भट्टोजि दीक्षित का काल वि० सं० १५७० से १६५० के मध्य उपपन्न हो सकता है, और कालविषयक कई विसंगतियां दूर हो सकती हैं। उपर्युक्त १० लेखकों में संख्या २, ३ र ७ द्वारा निर्दिष्ट काल हमारे द्वारा निश्चित काल के प्रत्यन्त समीप है ।
अन्य व्याकरण-ग्रन्थ
दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ के अतिरिक्त 'सिद्धान्तकौमुदी' और उस की व्याख्या' प्रोढमनोरमा' लिखी है। इनका वर्णन आगे 'पाणिनीय- १५ व्याकरण के प्रक्रिया- ग्रन्थकार' नामक १६ वें अध्याय में किया
जायगा ।
भट्टोजि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ को सिद्धान्तकौमुदी से पूर्व रचा था । वह उत्तर कृदन्त के अन्त में लिखता है -
इत्थं लौकिकशब्दानां दिङ्मात्रमिह दर्शितम् । विस्तरस्तु यथाशास्त्रं दशितः शब्दकौस्तुभे ॥
इससे यह भी व्यक्त होता है कि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ ग्रन्थ सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर रचा था । 'तो लोपः " सूत्र की प्रौढमनोरमा और उसकी शब्दरत्न व्याख्या से इतना स्पष्ट है कि शब्दकौस्तुभ षष्ठाध्याय तक अवश्य लिखा गया था । "
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आश्चर्य इस बात का है कि भट्टोज दीक्षित जिस सिद्धान्तकौमुदी के लिये दिङ्मात्रमिहदशितम लिख रहा है वही ग्रन्थ पाणिनीय व्याकरण का प्रमुख ग्रन्थ बन गया और यथा- शास्त्र लिखित अष्टाध्यायी के वृत्तिग्रन्थ पीछे पड़ गये ।
१. अष्टा० ६|४|५८॥
२. विस्तरः शब्दकौस्तुभे बोध्यः । ३०