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पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचय १४१ पूर्वाचार्य पाणिनीय 'कौड्यादिभ्यश्च" सूत्र के स्थान में 'रौढ्याविभ्यश्च' पढ़ते थे। इस से स्पष्ट है कि रौढि आचार्य पाणिनि से पौर्वकालिक है । पाल्यकीति ने अपने व्याकरण २।३।४ में रूढादिभ्यः ही पढ़ा है।
१४-शौनकि (३००० वि० पू०) चरक संहिता के टीकाकार जज्झट ने चिकित्सास्थान २।२७ की व्याख्या में आचार्य शौनकि का एक मत उद्धृत किया है । पाठ इस प्रकार है
कारणशब्दस्तु व्युत्पादितःकरोतेरपि कर्तृत्वे दीर्घत्वं शास्ति शौनकिः ।
तर्थात्-कृञ् धातु से कर्ता अर्थ में (ल्युट् में) दीर्घत्व का शासन करता है' शौनकि प्राचार्य ।
मल्लवादिकृत-द्वादशार-नयचक्र की सिंहसूरि गणि कृत टीका में लिखा है
स्यान्मतम, करोतीति कारणम् । यथोक्तम्ण्ठिवसिव्योल्युट्पग्योदीर्घत्वं वष्टि भागुरिः। करोतेःकर्तृ भावे च सौनागाः प्रचक्षते ॥
अर्थाथ्-ष्ठिव सिव की ल्युट् परे रहने पर दीर्घत्व चाहता है भागुरि । करोति से कर्तृ भाव में दीर्घत्व सौनाग कहते हैं।
सम्भव है यहां पर सौनागाः के स्थान पर शौनकाः मूल पाठ हो ।
भट्टि की जयमंगला टीका ३।४७ में उद्धृत वचन का उत्तरार्ध इस प्रकार हैधाकृमोस्तनिनयोश्च बहुलत्वेन शौनकिः । अर्थात्-घाञ् कृज् तनु और नह धातु के परे रहने पर अपि और २५
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१. अष्टा० ४११८०॥ २. तुलना करो- "कृञः कर्तरि" चान्द्र सूत्र (१३३६६)। ३. बड़ोदा संस्करण भाग १, पृष्ठ ४१ । ...
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