________________
३६०
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
इससे स्पष्ट है कि हरिस्वामी से पूर्ववर्ती प्रभाकर उससे पूर्ववर्ती कुमारिल और उससे प्राचीन भर्तृहरि है ।
६-हरिस्वामी के गुरु स्कन्दस्वामी ने निरुक्त टोका १२२ में वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड का 'पूर्वामवस्थामजहत्' इत्यादि पूर्ण ५ श्लोक उद्धृत किया है। इसी प्रकार निरुक्त टीका भाग १ पृष्ठ १०
पर क्रिया के विषय में जितने पक्षान्तर दर्शाये हैं, वे सब वाक्यपदीय के क्रियासमुद्देश के आधार पर लिखे हैं । निरुक्त टीका ५२१६ में उद्धृत 'साहचर्य विरोधिना' पाठ भी वाक्यपदीय २।३१७ का है।
यहां साहचर्य विरोधिता' पाठ होना चाहिये। अतः वाक्यपदीय की १० रचना स्कन्द के निरुक्तभाष्य से पूर्व हो चुकी थी, यह स्पष्ट है ।
७-स्कन्द का सहयोगी महेश्वर निरुक्त टीका ८२ में एक वचन उद्धृत करता है
यथा चोक्तं भट्टारकेणापि
पीनो दिवा न भुङ्क्ते चेत्येवमादिवचःश्रुतौ । ... रात्रिभोजनविज्ञानं श्रुतार्थापत्तिरुच्यते ।। यह श्लोक भट्ट कुमारिल कृत श्लोकवार्तिक का है ।' निरुक्त टीका का मुद्रित पाठ अशुद्ध है । भट्ट कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक में वाक्यपदीय का श्लोक उद्धृत करके उसका खण्डन किया है, यह हम
पूर्व लिख चुके हैं। इस से स्पष्ट है कि भर्तृहरि संवत् ६९५ से बहुत २० पूर्ववर्ती है । आधुनिक ऐतिहासिक भट्ट कुमारिल का काल विक्रम
की आठवीं शताब्दो मानते हैं, वह अशुद्ध है, यह भी प्रमाण संख्या ५, ७ से स्पष्ट है।
-इत्सिग अपनो भारतयात्रा में लिखता है-"इसके अनन्तर ___ 'पेइ-न' है, इसमें ३००० श्लोक हैं और इसका टोका भाग १४००० २५ श्लोकों में है। श्लोक भाग भर्तृहरि को रचना है और टोका भाग शास्त्र के उपाध्याय धर्मपाल का माना जाता है।"3
कई ऐतिहासिक 'पेइ-न' को वाक्यपदोय का तृतोय 'प्रकोण' काण्ड मानते हैं। यदि यह ठोक हो, तो वाक्यपदोय को रचना धर्मपाल से
१. काशी संस्क० पृष्ठ ४६३ । २. ३८६ पृष्ठ, टि० २। ३. इत्सिग की भारतयात्रा पृष्ठ २७६ ।
३०