SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाभाष्य के टीकाकार ३८९ दोनों श्लोकों का सामञ्जस्य करने के लिये द्वितीय श्लोक का अर्थ 'कलि संवत् ३०४७' किया है। उन्होंने 'सप्त' को पृथक् पद माना है । 'व' पद का प्रयोग होने से इस प्रकार कालनिर्देश हो सकता है। यदि यह व्याख्या ठीक हो तो द्वितीय श्लोक की पूर्व श्लोक के साथ संगति ठीक बैठ जाती है। विक्रम संवत् का प्रारम्भ कलि संवत् ५ ३०४५ से होता है। ३७४० कल्यब्द अर्थ करने में सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि उस काल अर्थात् विक्रम संवत् ५६४ में अवन्ति=उज्जैन में कोई विक्रम था, इसकी अभी तक इतिहास से सिद्धि नहीं हुई। यदि ३०४७ अर्थ को ठीक न मानें, तब भी इतना स्पष्ट है कि भर्तृ - हरि हरिस्वामी से पूर्ववर्ती है। अभी कुछ वर्ष पूर्व उज्जैन से एक शिलालेख प्राप्त हया है। उस से भी हरिस्वामी का विक्रम समकालीनत्व प्रमाणित होता है। द्र० हिन्दुस्तान (साप्ताहिक) १८ अगस्त ६४ के विजयदशमी के अंक में डा० एकान्तबिहारी का लेख । अनेक विद्वान् इस शिलालेख को जाली सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील हैं। हरिस्वामी के द्वितीय श्लोक का अर्थ कलि संवत् ३०४७ करने में यह प्रधान आपत्ति दी जाती है कि जब हरिस्वामी के आश्रयदाता विक्रमार्क का संवत् प्रवृत्त हो चुका था, तब उस ने विक्रम संवत् का उल्लेख क्यों नहीं किया ? इसका उत्तर सीधा सा है विक्रम संवत् को आरम्भ हुए अभी दो ही वर्ष हुए थे, जबकि कलि संवत् तीन सहस्र २० वर्ष से लोक व्यवहार में प्रचलित था । संस्कृत वाङमय में ऐसे अन्य ग्रन्थकार भी हैं, जिनके आश्रयदातानों का संवत् विद्यमान होते हुए भी उन्होंने कलि, विक्रम वा मालव संवत् का प्रयोग किया है। ५-हरिस्वामी ने शतपथ की व्याख्या में प्रभाकर मतानुयायियों के मत को उद्धृत किया है।' प्रभाकर भट्ट कुमारिल का शिष्य माना २५ जाता है । कुमारिल तन्त्रवार्तिक अ० १ पा० ३ अघि० ८ में वाक्यपदीय ११३ के वचन को उद्धृत करके उसका खण्डन करता है।' . १. अथवा सूत्राणि यथा विध्युद्देश इति प्राभाकरा:-अप: प्रणयतीति यथा । हमारा हस्तलेख पृष्ठ ५। २. यदपि केनचिदुक्तम्-तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते । ३० तद्रूपरसगन्धेष्वपि वक्तव्यमासीत् इत्यादि । पूना संस्क० भा० १ पृष्ठ २६६ ।।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy