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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
से पूर्वभावी देवबोध महाभारत की ज्ञानदीपिका टीका के प्रारम्भ में लिखता है
न दृष्ट इति वैयासे शब्दे मा संशयं कृथाः । अज्ञैरज्ञातमित्येवं पदं न हि न विद्यते ॥७॥ यान्युज्जहार माहेन्द्राद्' व्यासो व्याकरणार्णवात् । पदरत्नानि कि तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे ॥८॥
भगवान् वेदव्यास का संस्कृत-भाषा का ज्ञान अत्यन्त विस्तृत था । वायुपुराण १।१८ में लिखा है-भारती चैव विपुला महाभारत
वधिनी। १० सोलहवीं शताब्दी के प्रक्रियासर्वस्व के कर्ता नारायण भट्ट ने
अपनी 'प्रपाणिनीय-प्रमाणता' नामक पुस्तक में इस विषय पर भले प्रकार विचार किया है । यह पुस्तक त्रिवेन्द्रम से प्रकाशित हुई है ।'
१८. इतना ही नहीं, अष्टाध्यायी में प्रयुक्त आकारान्त श्ना, क्त्वा, आदि प्रत्ययों से अजादि असर्वनामस्थान विभक्तियों के परे १५ प्रातो धातो: के समान आकार का लोपविधायक कोई सूत्र नहीं है,
परन्तु पाणिनि ने आकार का लोप किया है । यथा___ हलः श्नः शानज्झौ । अष्टा० ३।१।८३॥
क्त्वो यक् । अष्टा० ७।१।४७।। क्त्वो ल्यप् । अष्टा० ७।१।३७॥
महाभाष्य ११२१७ में पतञ्जलि ने भी पाणिनि के समान क्त्वः २० का प्रयोग किया है। कात्यायन 'क्त्वा' शब्द का प्रयोग पाबन्त शब्द के समान करते हैं । यथा
क्त्वायां कित्प्रतिषेधः । महा० १।२।१॥
१, कई लोग इस श्लोक में 'माहेन्द्रात्' के स्थान में 'माहेशात्' पद पढ़ते हैं। यह श्लोक देवबोधविरचित है, और उस का पाठः 'माहेन्द्रात्' ही है। २५ माहेश पाठ और माहेश व्याकरण के लिये 'मञ्जूषा' पत्रिका (कलकत्ता) वर्ष
५, अङ्क ८ द्रष्टव्य है। भाष्यव्याख्या-प्रपञ्च में 'समुद्रवद् व्याकरणं महेश्वरे' इत्यादि श्लोकान्तर उद्धृत किया है। द्र०—पुरुषोत्तमदेवीय परिभाषावृत्ति परिशिष्ट ३, पृष्ठ १२६, वारेन्द्र रिसर्च सोसायटी संस्करण । २. इसे हम द्वितीय भाग के अन्त में प्रथम परिशिष्ट में प्रकाशित कर
__३. अष्टा० ६।४।१४० ॥