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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास ४७
काशिकाकार ने भी ७।२।५०, ५४ की वृत्ति में क्त्वायाम् प्रयोग किया है । सायण ने धातुवृत्ति १०।१४७ ( वञ्चधातु) में क्त्वायाम् और क्त्वः दोनों प्रयोग किये हैं । ' क्त्वा' के प्रबन्त न होने से 'याद' का आगम प्राप्त नहीं होता है ।
हमारे उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। इसके विपरीत पाश्चात्य भाषामतवादियों का कहना है कि पाणिनि के पश्चात् संस्कृत भाषा में जो परिवर्तन 'हुए उन को दर्शाने के लिये कात्यायन ने अपना वार्तिकपाठ रचा और तदन्तरभावी परिवर्तनों का निर्देश पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में किया है । यद्यपि यह मतं पाणिनीयतन्त्र के आधारभूत १० सिद्धान्त 'शब्दनित्यत्व' के तो विपरीत है ही, तथापि प्रभ्युपगमवाद से हम पाश्चात्य विद्वानों के उक्त कथन की निस्सारता दर्शाने के लिये यहां एक उदाहरण उपस्थित करते हैं
१९. पाणिनि का एक सूत्र है - ' चक्षिङः ख्याञ्' ।' इस पर कात्यायन ने वार्तिक पढ़ा है - 'चक्षिङ: क्शाख्यात्रौ ।' अर्थात् ख्याञ् १५ के साथ क्शाञ् प्रदेश का भी विधान करना चाहिये । पाश्चात्यों के मतानुसार इसका अभिप्राय यह होगा कि पाणिनि के समय केवल ख्या का प्रयोग होता था, परन्तु कात्यायन के समय क्शाञ् का भी प्रयोग होने लग गया, अतएव उसने ख्याञ् के साथ क्शाञ् प्रदेश का भी विधान किया ।
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हमें पाश्चात्य विद्वानों की ऐसी ऊटपटांग प्रमाणशून्य कल्पनाओं पर हंसी आती है । उपर्युक्त वार्तिक के आधार पर क्शाञ् को पाणिनि के पश्चात् प्रयुक्त हुआ मानना सर्वथा मिथ्या होगा । पाणिनि द्वारा स्मृत आचार्य गार्ग्य क्शाञ् के प्रयोग से अभिज्ञ था । वर्णरत्नदीपिका शिक्षा का रचियता अमरेश लिखता है -
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ख्याधातोः खययोः स्यातां कशौ गार्ग्यमते यथा ।
विक्रयाऽऽक्शाताम् इत्येतत्
113 इस गार्ग्यमत का निर्देश आचार्य कात्यायन ने वाजसनेय प्राति
१. अष्टा० २।४।५४ ॥
३. श्लोक १६५ । शिक्षासंग्रह ( काशी संस्करण) पृष्ठ १३१ ॥
२. महाभाष्य २|४|५४ ॥
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