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संस्कृत व्यकारण-शास्त्र का इतिहास
शाख्य ४।१६७ के 'ख्यातेः खयौ, कशौ गार्ग्यः, सक्ख्योक्ख्यमुक्ख्यवर्जम्' सूत्र में किया है । आचार्य शौनक ने भी ऋप्रातिशाख्य ६।५५, ५६ में 'क्शा' धातु के 'क्-श' के स्थान पर कई प्राचार्यों के मत में 'ख-य' का विधान किया है।'
इतना ही नहीं, पाणिनि से पूर्व प्रोक्त और अद्य यावत् वर्तमान मैत्रायणीय संहिता में 'ख्या' धातु के प्रसङ्ग में सर्वत्र 'क्शा' के प्रयोग मिलते हैं।' काठक संहिता में कहीं-कहीं 'क्शा' के प्रयोग उपलब्ध होते हैं। शुक्लयजुः प्रातिशाख्य का भाष्यकार उव्वट स्पष्ट लिखता है-'ख्यातेः क्शापत्तिरुक्ता, एते चरकाणाम् । ऐसी अवस्था में कहना कि पाणिनि के समय क्शा का प्रयोग विद्यमान नहीं था, अपना अज्ञान प्रदर्शित करना है । .. प्रश्न हो सकता है कि यदि क्शा धातु का प्रयोग पाणिनि के समय विद्यमान था, तो उस ने उस का निर्देश क्यों नहीं किया ? इस का
उत्तर यह है कि पाणिनि ने प्राचीन विस्तृत व्याकरण-शास्त्र का संक्षेप १५ किया है। यह हम पूर्व कह चुके हैं। इसलिये उसे कई नियम छोड़ने
पड़े। दूसरा कारण यह है कि पाणिनि उत्तरदेश का लिवासो था। अतः उस के व्याकरण में वहां के शब्दों का प्राधान्य होना स्वाभाविक है । क्शा का प्रयोग दक्षिणापय में होता था। मैत्रायणोय संहिता के
प्रचार का क्षेत्र आज भी वही है। वार्तिककार कात्यायन दाक्षिणात्य २० था। वह क्शा के प्रयोग से विशेष परिचित था । इसलिये
उसने पाणिनि से छोड़े गये क्शा धातु का सनिवेश और कर दिया। हमारी इस विवेचना से स्पष्ट है कि क्शात्र का प्रयोग पाणिनि से पूर्व विद्यमान था । अतः कात्ययनीय वार्तिकों वा पातञ्जल महाभाष्य के किन्हीं वचनों के आधार पर यह कल्पना करना कि पाणिनि के
१. क्शातौ खकारयकारा उ एके । तावेव ख्यातिसदृशेषु नामसु । २. अन्वग्निरुषसामग्रमक्शत् । मै० सं० ११८६ इत्यादि । ३. नक्तमग्निरुपस्थेयः पशूनामनुक्शात्यै । काठक सं० ७१० ॥ ४. वाज० प्राति० ४।१६७ ।।
५. देखो पूर्व पृष्ठ ३५, ३६, सन्दर्भ ८ । ३०. ६. प्रियतद्धिता दाक्षिणात्याः-यथा लोके वेदे चेति प्रयोक्तव्ये यथा . लौकिकवैदिकेष्विति प्रयुञ्जते । महाभाष्य अ० १, पाद १, प्रा० १ ।