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________________ ७ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास समय यह प्रयोग नहीं होता था, पीछे से परिवर्तित होकर इस प्रकार प्रयुक्त होने लगा, सर्वथा मिथ्या है। ४६ २०. पूर्वमीमांसा ( १।३।३० ) के पिक नेमाधिकरण में विचार किया है कि - 'वैदिक-ग्रन्थों में कुछ शब्द ऐसे प्रयुक्त हैं, जिनका प्रार्य लोग प्रयोग नहीं करते किन्तु म्लेच्छ - भाषा में उन का प्रयोग होता ५ है । ऐसे शब्दों का म्लेच्छ प्रसिद्ध अर्थ स्वीकार करना चाहिये अथवा निरुक्त व्याकरण आदि से उन के अर्थों की कल्पना करनी चाहिये ।' इस विषय में सिद्धान्त कहा है- 'वैदिक-ग्रन्थों में उपलभ्यमान शब्दों का यदि आर्यों में प्रयोग न हो तो उन का म्लेच्छ-प्रसिद्ध अर्थ स्वीकार कर लेना चाहिये ।' १० मीमांसा के इस प्रधिकरण से स्पष्ट है कि वैदिक-ग्रन्थों में अनेक पद ऐसे प्रयुक्त हैं, जिन का प्रयोग जैमिनि के काल में लौकिक संस्कृत से लुप्त हो गया था ।, परन्तु म्लेच्छ-भाषा में उन का प्रयोग विद्यमान था । शबरस्वामी ने इस अधिकरण में 'पिक, नेम, अर्ध, तामरस' शब्द उदाहरण माने हैं । शबरस्वामी इन शब्दों के जिन १५ अर्थों को म्लेच्छ - प्रसिद्ध मानता है उन्हीं अर्थों में इन का प्रयोग उत्तरवर्ती संस्कृत साहित्य में उपलब्ध होता है । श्रतः प्रतीत होता है कि कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनका प्राचीन काल में आर्य भाषा में प्रयोग होता था, कालान्तर में उन का प्रार्य भाषा से उच्छेद हो गया, और उत्तर-काल में उन का पुनः प्रार्य-भाषा में प्रयोग होने लगा । इस की २० पुष्टि अष्टाध्यायी ७ । ३ । ६५ से भी होती है । पाणिनि से पूर्ववर्ती आपिशलि 'तुरुस्तुशम्यमः सार्वधातुकासु च्छन्दसि'" सूत्र में 'छन्दसि' ग्रहण करता है, अतः उस के काल में 'तवीति' आदि पद लोक में प्रयुक्त नहीं थे, परन्तु उसके उत्तरवर्ती पाणिनि 'छन्दसि' ग्रहण नहीं करता । इससे स्पष्ट है कि उस के काल में इन पदों का लोक-भाषा २५ में पुनः प्रयोग प्रचलित हो गया था ।' १. काशिका ७।३।६५ ॥ २. काशकृत्स्न के 'ब्रूना देरी तिसिमिषु' सूत्रानुसार ' ब्रवीति' के समान . 'स्तवीति' 'ऊर्णीति' आदि प्रयोग भी लोक व्यवहृत हैं । द्रष्टव्य - 'काशकृत्स्नव्याकरण', सूत्र ७४, पृष्ठ ६१ ( हमारा संकलन ) तथा 'काशकृत्स्न- व्याकरण ३० और उसके उपलब्ध सूत्र' लेख 'साहित्य' (पटना) का वर्ष १०, अङ्क २, पृष्ठ २६ ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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