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________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास ५ (क) इसीलिये तलवकार संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और पूर्वमीमांसा के प्रवक्ता महर्षि जैमिनि (३००० वि० पू०) ने लिखा है प्रयोगचोदनाभावादकत्वमविभागात् । मो० १॥३॥३०॥ _ अर्थात्-प्रयोग=यागादि कर्म की चोदना=विधायक वाक्य के श्रुति में उपलब्ध होने से (लौकिक वैदिक) पदों का अर्थ एक ही ५ है । अविभागात् लौकिक वैदिक पदों के विभाग न होने से (एक होने से)। इस सूत्र की व्याख्या में शबरस्वामी लिखता हैय एव लौकिकास्त एव वैदिकास्त एव च तेषामर्थाः ।' अर्थात्-जो लौकिक शब्द हैं, वे ही वैदिक हैं, और वे ही उनके १० अर्थ हैं। अतिविस्तृत प्रारम्भिक लोक-भाषा कालान्तर में शब्द और अर्थ दोनों दृष्टियों से शनैः शनैः संकुचित होने लगी, और वर्तमान में वह अत्यन्त संकुचित हो गई । इसलिये मीमांसा का उपर्युक्त सिद्धान्त यद्यपि इस समय अयुक्त-सा प्रतीत होता है, तथापि पूर्वाचार्यों का यह १५ सिद्धान्त सर्वथा सत्य था, यह हम अनुपद प्रमाणित करेंगे। (ख) शब्दार्थ-सम्बन्ध के परम ज्ञाता यास्क मुनि (३००० वि० पू०) भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। निरुक्त ११२ में लिखा है__'व्याप्तिमत्त्वात्तु शब्दस्याणीयस्त्वाच्च शब्देन संज्ञाकरणं व्यव- २० हारार्थ लोके । तत्र मनुष्यवद्देवताभिधानम् । पुरुषविद्याऽनित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे'। अर्थात-शब्द के व्यापक और लघभूत होने से लोक में व्यवहार के लिये शब्दों से संज्ञाएं रक्खी गईं। देवता=वेदमन्त्रों में अभि १. श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा की 'शिक्षा-प्रकाश' टीका में इस वचन १ को महाभाष्य के नाम से उद्धृत किया है । पृष्ठ २४, मनमोहन धोष सम्पादित कलकत्ता वि० वि० का संस्करण, सन् १९३८ । 'पञ्जिका-टीका' में भाष्यकार के नाम स उद्धृत किया है। पृष्ठ ८, वही संस्करण । स्कन्दस्वामी ने निरुक्त टीका (भाग १ पृष्ठ १८) मैं इसे न्याय कहा है । २. 'स मन्त्रो वेदे देवताशब्देन गृह्यते' । ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषय- १०
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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