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संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास धान अर्थ मनुष्यों में प्रयुक्त अर्थों के सदृश हैं। पुरुष की विद्या अनित्य होने से कर्म की संपूर्ति कराने वाले मन्त्र वेद में हैं।
इस लेख में यास्क ने लोक और वेद में शब्दार्थ की समानता तथा वेद का अपौरुषेयत्व स्वीकार किया है। लोक वेद में शब्दार्थ की समानता स्वीकार कर लेने पर उभयविध पदों का ऐक्य सुतरां सिद्ध
यास्क पुनः (१।१६) लिखता हैअर्थवन्तः शब्दसामान्यात् ।
अर्थात्-वैदिक शब्द अर्थवान् हैं, लौकिक शब्दों के समान होने १० से।
(ग) वाजसनेय प्रातिशाख्य (१३) में कात्यायन मुनि ने भी इसी मत का प्रतिपादन किया है । यथा
न, समत्वात् ।
अर्थात-वैदिक शब्दों का स्वरसंस्कारनियम अभ्युदय का हेतु है, १५ यह ठीक नहीं । लौकिक और वैदिक शब्दों के समान होने से । ___इस सूत्र की व्याख्या में उवट और अनन्तदेव दोनों लिखते हैं
य एव वैदिकास्त एव लौकिकास्त एव तेषामर्थाः (त एव चामीषामर्थाः-अनन्त)।
मीमांसा के लोकवेदाधिकरण (१।३।६) में इस पर विस्तृत २० विचार किया है।
उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि शब्द-अर्थ-सम्बन्ध के परम ज्ञाता जैमिनि, यास्क और कात्यायन तीनों महान् आचार्य एक ही बात कहते हैं।
गत २, ३ सहस्र वर्ष के अनेक विद्वान् लौकिक और वैदिक शब्दों २५
में भेद मानते हैं । वे अपने पक्ष की सिद्धि में निम्नलिखित तीन प्रमाण उपस्थित करते हैं
विचार, रामलाल कपूर ट्रस्ट बृहत्संस्करण पृष्ठ ६८ । मीमांसक देवता को मन्त्रमयी मानते है । देखो 'अपि वा शब्दपूर्वत्वात्' मी० ६।११६ की व्याख्या ।