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२१४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास किया गया है । उत्तर कूल दात्तः गौतः प्रयोग आधु दात्त प्रयुक्त होते थे अतः उनके लिए पाणिनि ने अञ् प्रत्यय का और दक्षिण कूल के दात्त: गोप्तः अन्तोदात्त बोले जाते थे, इसलिए उनके लिए अण प्रत्यय का विधान किया।
यदि पाणिनि के समय उदात्तादि स्वरों का जनसाधारण की भाषा में यथाथ उच्चारण प्रचलित न होता तो पाणिणि ऐसे सूक्ष्म नियम' बनाने को कदापि चेष्टा न करता । पाणिनि के उत्तर काल में लोकभाषा में स्वरोच्चारण के लोप हो जाने पर उत्तरवर्ती
वैयाकरणों ने स्वरविशेष की दृष्टि से पाणिनि द्वारा विहित प्रत्ययों १० के वैविध्य को हटा दिया।
हमने वैदिक-स्वर-मीमांसा अन्य के 'स्वर का लोप' प्रकरण में - लिखा है कि कृष्ण द्वैपायन के शिष्य प्रशिष्यों के शाखा प्रवचन काल में स्वरोच्चारण में कुछ-कुछ शैथिल्य पाने लग गया था। अतः लोक भाषा में व्यवह्रियमाण स्वरों का यथावत सूक्ष्म दष्टि से विधान करने वाले प्राचार्य पाणिनि का काल अन्तिम शाखा प्रवचन काल से अनतिदूर हो होना चाहिए । अन्तिम शाखा प्रवचन काल अधिक से अधिक भारत युद्ध (३१०० वि० पूर्व) से १०० वष उतर तक है । अतः पाणिनि का काल भारत युद्ध से २०० वर्ष से अधिक अर्वाचीन नहीं हो सकता ।
४--पाणिनि के काल पर प्रकाश डालने वाला एक सूत्र है-- योगप्रमाणे च तदभावेऽदर्शनं स्यात् । १।२५५॥
इस सूत्र का अभिप्राय यह है यदि पञ्चाला: अङ्गाः वङ्गाः मगधाः आदि देशवाची शब्दों की प्रवृति का निमित्त पञ्चाल अङ्ग वङ्ग
मगध नाम वाले क्षत्रिय हैं अर्थात् इन नाम वाले क्षत्रियों के निवास २५
के कारण उस प्रदेश के ये नाम प्रसिद्ध हुए, ऐसा पूर्वाचार्यों का मत माना जाए तो इन नाम वाले क्षत्रियों के उस उस प्रदेश में प्रभाव हो जाने पर उन उन क्षत्रियों के निवास के कारण उन उन देशों के लिए व्यवहार में आने वाले पञ्चाल आदि शब्दों का व्यवहार भी
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१. स्वरे विशेषः । महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य । काशिका ३, ४१२७४॥ २. वैदिक-स्वर-मीमांसा पृष्ठ ५१, ५२; द्वि० सं० ।