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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २१३ - ड-शूद्रों के अभिवादन प्रत्यभिवादन के नियम का उल्लेख ८।२।८२ में किया है। ___इन तथा एतादृश अन्य अनेक प्रकरणों से स्पष्ट है कि पाणिनि के काल में संस्कृत लोक व्यवहार्य जनसाधारण की भाषा थी। ___कीथ की सत्योक्ति-कीथ ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास ५ . में अष्टाध्यायी के उपर्युक्त जनसाधारणोयोगी शब्दों का निर्देश करके यह स्वीकार किया है कि पाणिनि के समय संस्कृत बोल-चाल की भाषा थी।
३. पाणिनि की अष्टाध्यायी से तो यह भी पता चलता है कि संस्कृत भाषा केवल जनसाधारण की ही भाषा नहीं थी, अपितु १० जनसाधारण वैदिक भाषावत् लोकभाषा में भी उदात्त अनुदात्त स्वरित स्वरों का यथावत् व्यवहार करते थे। पाणिनीय अष्टाध्यायी के वे सब स्वर-नियम और स्वरों की दृष्टि से प्रत्ययों में सम्बद्ध अनुबन्ध, जिन का संबन्ध केवल वैदिक भाषा के साथ ही नहीं है, इस तथ्य के ज्वलन्त प्रमाण हैं। पुनरपि हम पाणिनि के दो ऐसे १५ सूत्र उपस्थित करते हैं, जिन का सम्बन्ध एक मात्र लोकभाषा से है यथा
क-विभाषा भाषायाम् । ६।२। ८१॥ इस सूत्र के अनुसार भाषा अर्थात लौकिक संस्कृत के पञ्चभिः सप्तभिः तिसृभिः चतसृभिः आदि प्रयोगों में विभक्ति तथा विभक्ति २० । से पूर्व अच् को विकल्प से उदात्त बोला जाता था।
ख-उदक् च विपाशः। ४।२।७४॥ इस सूत्र द्वारा विपाश= व्यास नदो के उत्तर कल के कूपों के लिए प्रयुक्त होने वाले दात्त: गौप्तः प्रयोगों के लिए अञ् प्रत्यय का विधान किया है । दक्षिण कूल के कूपों के लिए भी दात्तः गौप्त: २५ आदि पद ही प्रयुक्त होते हैं, परन्तु उनमें अण् प्रत्यय होता है । अञ् और अण् प्रत्ययों का पृथक् विधान केवल स्वरभेद की दृष्टि से ही
१. द्र०—कीथ के ग्रन्थ का डा० मङ्गलदेव शास्त्री कृत भाषानुवाद पृष्ठ ११-१३ । इसके विपरीत भारतीय विद्वान अभी तक यह लिखते हैं कि संस्कृत कभी बोलचाल की व्यावहारिक भाषा नहीं थी। द्र०--वाचस्पति गैरौला कृत ३० संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ ४० (सन् १९६०) ।