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अष्टाध्यायी के वात्तिककार ..
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स्मृति उपलब्ध होती है, वह संभवतः अर्वाचीन है । इस का मूल कोई प्राचीन कात्यायन स्मृति रही होगी।
५. सामुद्रिक ग्रन्थ-शारीरिक लक्षणों के आधार पर शुभाशुभ का निदर्शन कराने वाला शास्त्र 'सामुद्रिकशास्त्र' कहाता है। इसी को 'अङ्गविद्या' भी कहा जाता है । यह विद्या भी अतिप्राचीन ५ काल से लब्धास्पद है। (द्र०-पूर्व पृष्ठ २८६) । रामायण वालकाण्ड सर्ग १ श्लोक ६ की रामायण की तिलकटीका में तथा चोक्तं वररुचिना' निर्देश करके इस शास्त्र का एक वचन उद्बत है। गोविन्दराजीय टीका में श्लोक ११ की व्याख्या में भी 'तत्रोक्तं वररुचिना' निर्देश पूर्वक एक वचन निर्दिष्ट है। श्लोक १० की रामायण तिलक- १० टीका में इसी शास्त्र का एक वचन उद्धृत करके 'इति कात्यायनः का निर्देश है । इन से विदित होता है कि वणरुचि कात्यायन का सामुद्रिक विद्या पर भी कोई ग्रन्थ था । ... यदि संख्या ४-५ के ग्रन्थ आदि वातिककार वररुचि कात्यायन के न हों, तो वे विक्रमकालीन वररुचि कात्यायन के होंगे।
६. उभयसारिका-भाण-मद्रास से चतुर्भाणी प्रकाशित हुई है। उस में वररुचिकृत 'उभयसारिका' नामक एक भाण छपा है। उसके अन्त में लिखा है
इति श्रीमद्वररुचिमुनिकृतिरुभयसारिकानामभाणः समाप्तः ।
इस वाक्य में यद्यपि वररुचि का विशेषण 'मुनि' लिखा है, २० तथापि यह वार्तिककार वररुचिकृत प्रतीत नहीं होता । महाभाष्य पस्पशाह्निक में वार्तिककार को तद्धितप्रिय' लिखा है, परन्त उभयसारिका में तद्धितप्रियता उपलब्ध नहीं होती । उसमें तद्धितप्रयोग अत्यल्प हैं, कृत्प्रयोगों का बाहुल्य है । अतः ‘कृत्प्रयोगरुचय उदीच्या:" इस नियम के अनुसार उपर्युक्त भाण का कर्ता कोई औदीच्य कवि २५ है। सम्भव है यह भाण विक्रमकालिक वररुचि कवि कृत हो।
अनेक ग्रन्थ -अाफेक्ट कृत बृहद् हस्तलेख-सूचीपत्र में कात्यायन तथा वररुचि के नाम से अनेक ग्रन्थ उद्धृत हैं। उनमें से कितने ग्रन्थ वार्तिककार कात्यायन कृत हैं, यह अभी निश्चेतव्य है । हमें उनमें अधिक ग्रन्थ विक्रमकालिक वररुचिकृत प्रतीत होते हैं।
१. पृष्ठ ३३० पर उद्धृत वचन । २. काव्यमीमांसा पृष्ठ २२ ।