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प्रथम संस्करण की भूमिका भाषा के संकोच (- ह्रास) के कारण प्रतीत होता है। वस्तुतः संस्कृतभाषा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। हमने इस विषय का विशद निरूपण इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में किया है। अपने पक्ष की सत्यता दर्शाने के लिये हमने २० प्रमाण दिये हैं। हमें अपने विगत ३० वर्ष के संस्कृत अध्ययन तथा अध्यापनकाल में संस्कृतभाषा का एक भी ऐसा शब्द नहीं मिला, जिसके लिये कहा जा सके कि अमुक समय में संस्कृतभाषा में इस शब्द का यह रूप था, और तदुत्तरकाल में इसका यह रूप हो गया ।' इसी प्रकार अनेक लोग संस्कृतभाषा में मुण्ड आदि भाषाओं के शब्दों का अस्तित्व मानते हैं, वह भी मिथ्याकल्पना है । वे वस्तुतः संस्कृतभाषा के अपने शब्द हैं,
और उसके विकृत रूप मुण्ड आदि भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं । इस विषय का संक्षिप्त निदर्शन भी हमने प्रथमाध्याय के अन्त में कराया है।
इतिहास का लेखन और मुद्रण मैं इस ग्रन्थ के लिये उपयुक्त सामग्री का संकलन संवत् १९६६ तक लाहौर में कर चुका था, इसकी प्रारम्भिक रूपरेखा भी निर्धारित की जा चुकी थी। संवत् १९६६ के मध्य से संबत् २००२ के अन्त तक परोपकारिणी सभा अजमेर के ग्रन्थसंशोधन कार्य के लिये अजमेर में रहा । इस काल में इस ग्रन्थ के कई प्रकरण लिखे गये, और भाषाविज्ञान का गम्भीर अध्ययन और मनन किया। इसके परिणामस्वरूप इस ग्रन्थ का प्रथम अध्याय लिखा गया। कई कारणों से संवत २००३ के प्रारम्भ में परोपकारिणी सभा अजमेर का कार्य छोड़ना पड़ा, अतः मैं पुनः लाहौर चला गया। वहां श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट में कार्य करते हुए इस ग्रन्थ के प्रथम भाग का चार पांच वार संशोधन करने के अनन्तर मुद्रणार्थ अन्तिम प्रति (प्रेस कापी) तैयार की। श्री माननीय पण्डित भगवद्दत्तजी ने, जिनकी प्रेरणा और अत्यधिक सहयोग का फल यह ग्रन्थ है, अपने व्यय से इस ग्रन्थ के प्रकाशन की
१. इस चतुर्थ संस्करण तक ६० वर्ष के संस्कृत अध्ययन-अध्यापन-काल में भी हमें एक भी ऐसा शब्द नहीं मिला, और न किसी विद्वान् ने इस विषय का एक भी उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत किया । जिसका रूपान्तर हो गया हो, और वह रूपान्तर भी संस्कृतभाषा का ही अङ्ग बन गया हो ।