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अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ४८६ ६-कातन्त्र उत्तरार्ध-इसका वर्णन 'कातन्त्र' व्याकरण के प्रकरण में किया जाएगा।
७-प्राकृतप्रकाश-यह प्राकृत भाषा का व्याकरण है । इस पर भामह की 'प्राकृतमनोरमा' टीका छप चुकी है।
८-कोश-अमरकोश आदि की विविध टीकानों में कात्य, ५ कात्यायन तथा वररुचि के नाम से किसी कोष-ग्रन्य के अनेक वचन उद्धृत हैं । वररुचिकृत कोष का एक सटीक हस्तलेख 'मद्रास राजकीय पुस्तकालय' में विद्यमान है, देखो-सूचीपत्र भाग २६ खण्ड १ ग्रन्थाङ्क १५६७२ । __-उपसर्ग-सूत्र-माधवनिदान की मकोष व्याख्या में वररुचि १० का एक उपसर्ग-सूत्र उद्धृत है।'
१०-पत्रकौमुदी ११-विद्यासुन्दरप्रसंग काव्य ।
७. देवनन्दी (सं० ५०० वि० से पूर्व) 'जैनेन्द्र-शब्दानुशासन' के रचयिता देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद १५ ने पाणिनीय व्याकरण पर 'शब्दावतारन्यास' नाम्नी टीका लिखी थी। इस में निम्न प्रमाण हैं
१-शिमोगा जिले की 'नगर' तहसील के ४३ वें शिलालेख में लिखा है
'न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनतं पाणिनीयस्य भूयो, न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह भात्यसौ पूज्यपादः, । स्वामो भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृत्तः ॥
अर्थात्-पूज्यपाद ने अपने व्याकरण पर जैनेन्द्र न्यास, पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार-न्यास, वैद्यक का ग्रन्थ और तत्त्वार्थसूत्र की २५ टीका लिखी है ।
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१. वररुचेरुपसर्गसूत्रम्-'नि निश्चयनिषेधयोः । 'निर्णयसागर सं० पृ०५ ।
२. 'जैन साहित्य और इतिहास' पृष्ठ १०७, टि० १; द्वि० सं० पृष्ठ ३३ टि० २। देवनन्दी का प्रकरण प्रायः इसी ग्रन्थ के आधार पर लिखा गया है।