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प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण
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जिन शब्दों के सावुत्व का प्रतिपादन वार्तिकों और महाभाष्य की इष्टियों से किया है, चन्द्राचार्य ने उन पदों का सन्निवेश सूत्रपाठ में कर दिया है । अत एव उसने अपने ग्रन्थ का विशेषण 'सम्पूर्ण' लिखा है।
चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण को रवता में तञ्जल महाभाष्य ५ से महान लाभ उठाया है। पतञ्जलि ने पाणिनीय सूत्रों के जिस न्यासान्तर को निर्दोष बताया, चन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण में प्रायः उसे ही स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार जिन पाणिनीय सूत्रों वा सूत्रांशों का पतञ्जलि ने प्रत्याख्यान कर दिया, चन्द्राचार्य ने उन्हें अपने व्याकरण में स्थान नहीं दिया। इतना होने पर भी अनेक १० स्थानों पर चन्द्राचार्य ने पतञ्जलि के व्याख्यान को प्रामाणिक न मान कर अन्य ग्रन्यकारों का प्राश्रय लिया है।'
पं० विश्वनाथ मिश्र को महती भूल-'संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश को परम्परा' नामक संग्रह ग्रन्थ के अन्तर्गत 'भिक्षु शब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन' शीर्षक लेख में पं० विश्वनाथ १: मिश्र ने लिखा है-चान्द्र व्याकरण तो अाजकल उपलब्ध नहीं है (पृष्ठ १७२) । बड़े आश्चर्य की बात है कि जर्मनी और पूना से वृत्ति सहित तथा जोधपुर से मूल चान्द्रव्याकरण के संस्करणों के प्रकाशित हो जाने पर भी 'चान्द्रव्याकरण तो अाजकल मिलता नहीं है' लिखा है । इस प्रकार लिखने का साहस करना पं० विश्वनाथ मिश्र की २० अज्ञता का बोधक तो है ही शोध कार्य की असामर्थ्य का भी द्योतक है।
चान्द्र-तन्त्र और स्वर-वैदिक-प्रकरण डा० बेल्वाल्कर और एस० के० दे का मत है कि चन्द्रगोमी ने बौद्ध होने के कारण स्वर तथा वेदविषयक सूत्रों को अपने व्याकरण में स्थान नहीं दिया।
१. तुमो लुक् चेच्छायाम् । चान्द्र १।१। २२ । तुलना करो-महाभाष्य ३ । १।७-तुमुनन्ताद्वा तस्य लुग्वचनम् ।
२. यथा-एकशेष प्रकरण । ३. रङ्कोः प्राणिनि वा । चान्द्र ३।२।। की महाभाष्य ४ । २ । १०० से तुलना करो।
४. बेल्वाल्कर-सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ५६; दे- इण्डियन .. हिस्टोरिकल क्वार्टली जून १९३८, पृष्ठ २५८ ।