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संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास
' चान्द्र व्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकनध्ययनम्' नामक शोष प्रबन्ध के लेखक पं० हर्षनाथ मिश्र ने बकारवकार के अभेदग्राहकता के हमारे हेतु का 'धुनापि प्राचीनाः पण्डिता बकारवकारयो विशिष्टे उच्चारणे लेखे च मन्दादराः प्रमाद्यन्ति रूप हेत्वाभास से निराकरण करके चन्द्राचार्य का कश्मीर देशजत्व सिद्ध करने का प्रयास किया है ( ० पृष्ठ ३-५ ) । हमारे विचार में पं० हर्षनाथ मिश्र का यह साहस मात्र है ।
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काल
महान् ऐतिहासिक कल्हण के लेखानुसार चन्द्राचार्य कश्मीर के १० नृपति अभिमन्यु का समकालिक था । उसकी आज्ञा से चन्द्राचार्य ने नष्ट हुए महाभाष्य का पुनः प्रचार किया, और नये व्याकरण की रचना की ।' महाराज अभिमन्यु का काल अभी तक विवादास्पद बना हुआ है। पाश्चात्त्य विद्वान् अभिमन्यु को ४२३ ईसा पूर्व से लेकर ५०० ईसा पश्चात् तक विविध कालों में मानते हैं । कल्हण के १५ मतानुसार अभिमन्यु का काल विक्रम से न्यूनातिन्यून १००० वर्ष पूर्व है | हम भारतीय कालगणना के अनुसार इसी काल को ठीक मानते हैं | चन्द्राचार्य के काल के विषय में हम महाभाष्यकार पतञ्जलि के प्रकरण में विस्तार से लिख चुके हैं ।
चान्द्रव्याकरण की विशेषता
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प्रत्येक ग्रन्थ में अपनी कुछ न कुछ विशेषता होती है । चान्द्रवृत्ति' और वामनीय लिङ्गानुशासन वृत्ति' में चान्द्रव्याकरण की विशेषताचन्द्रोपज्ञमसंज्ञकं व्याकरणम्' लिखी है । अर्थात् चान्द्र व्याकरण में किसी पारिभाषिक संज्ञा का विधान न करना उसकी विशेषता है । चन्द्राचार्य ने अपनी स्वोपज्ञवृत्ति के प्रारम्भ में अपने व्याकरण की २५ विशेषता इस प्रकार दर्शाई है
'लघुविस्पष्टसम्पूर्णमुच्यते शब्दलक्षणम्'
अर्थात् यह व्याकरण पाणिनीय तन्त्र की अपेक्षा लघु विस्पष्ट और कातन्त्र आदि की अपेक्षा सम्पूर्ण है । पाणिनीय व्याकरण में
१. देखो - पूर्व पृष्ठ ३७६ टि० २ । -
२. पूर्व पृष्ठ ३६८ - ३७०
३. २ । २ । ८६ ।
४. पृष्ठ ७ ।