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प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६४७ उससे ज्ञात होता है कि चन्द्रगोमी बौद्धमतावलम्बी था।'
महाभारत के टीकाकार नीलकण्ठ ने अनुशासन पर्व १७ । ७८ को व्याख्या में महादेव के पर्याय 'निशाकर' की व्याख्या करते हुए लिखा है
निशाकरश्चन्द्रः, चन्द्रव्याकरणप्रणेता'। यह नीलकण्ठ को इतिहासानभिज्ञता का द्योतक हैं।
देश-कल्हण के लेख से विदित होता है कि चन्द्राचार्य ने कश्मीर के महाराज अभिमन्यू की प्राज्ञा से कश्मीर में महाभाष्य का प्रचार किया था। परन्तु उसके लेख से यह विदित नहीं होता है कि चन्द्राचार्य ने भारत के किस प्रान्त में जन्म लिया था । किसी अन्य प्रमाण १० से भी इस विषय पर साक्षात् प्रकाश नहीं पड़ता। चन्द्रगोमी के उणादिसूत्रों की अन्तरङ्ग परीक्षा करने से प्रतीत होता है कि वह बङ्ग प्रान्त का निवासी था।
हम पुरुषोत्तमदेव के प्रकरण में लिख चुके हैं कि बंगवासी अन्तस्थ वकार और पवर्गीय बकार का उच्चारण एक जैसा करते हैं। उनका १५ यह उच्चारण-दोष अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है। __चन्द्राचार्य ने अपने उणादिसूत्रों की रचना वकारादि अन्त्य अक्षरक्रम से की है। वह उणादिसूत्र २।८८ तक पकारान्त शब्दों को समाप्त करके सूत्र ८६ में फकारान्त गुल्फ शब्द की सिद्धि दर्शान कर बकारान्तों के अनुक्रम में सूत्र ९०, ९१ में अन्तस्थान्त 'गर्व, शर्व, २० अश्व, लट्वा, कण्व, खट्वा' और 'विश्व' शब्दों का विधान करके सूत्र ६२ के शिवादिगण में 'शिव सर्व, उल्व, शुल्व, निम्ब, बिम्ब, शम्ब; स्तम्ब, जिह्वा, ग्रीवा' शब्दों का साधत्व दर्शाता है। इनमें अन्तस्थान्त और पवर्गीयान्त दोनों प्रकार के शब्दों का एक साथ सन्निवेश है। इससे प्रतीत होता है कि चन्द्राचार्य बंगदेशीय था । अत एव उसने २५ प्रान्तीयोच्चारण दोष की भ्रान्ति से अन्तस्थ वकारान्त पदों को भी पवर्गीय बकारान्त के प्रकरण में पढ़ दिया।
१. सिद्धं प्रणम्य सर्वज्ञं सर्वीयं जगतो गुरुम् । २. देखो-पूर्व पृष्ठ ३७६, टि०२। ३. देखो-पूर्व पृष्ठ ४२८ ।