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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
'बेल्वाल्कर' और 'दे' की भ्रान्ति-डा० बेल्वाल्कर और एस. के. दे का चान्द्रव्याकरण सम्बन्धी उपयुक्त मत भ्रान्तिपूर्ण होने से सर्वथा मिथ्या है। प्रतीत होता है कि इन लोगों ने चान्द्रव्याकरण
और उसकी उपलब्ध वृत्ति का पूरा पारायण ही नहीं किया और ५ षष्ठ अध्याय में 'समाप्तं चेदं चान्द्रव्याकरणं शुभम्' पाठ देख कर ही
उक्त कल्पना कर ली। . पं० अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह की मूलें-पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह का 'मध्यकालीन भारतना महावैयाकरण' शोर्षक एक लेख 'श्री
जैन सत्यप्रकाश' के वर्ष ७ के दीपोत्सवी अंक में छपा है। उसमें १० लिखा है___ 'तेने (चन्द्र ने) पाणिनीय प्रत्याहारो काढी ने नवा मूक्या छे. तेने वैदिक व्याकरण अपने धातुपाठ काढनाख्यो छे.' ___ इस लेख में वैदिकप्रकरण के साथ धातुपाठ को निकालने, और
प्रत्याहारों के बदलने का भी उल्लेख किया है। यह सर्वथा मिथ्या १५ है। चान्द्र का धातुपाठ जर्मन से छपा हुआ उपलब्ध है। वह उक्त
लेख लिखने (सन् १९४१) से ३९ वर्ष पूर्व छप चुका है। प्रत्याहारों में चान्द्र ने केवल एक सूत्र में परिवर्तन करने के अतिरिक्त सभी पाणिनीय प्रत्याहार ही स्वीकार किये हैं। प्रतीत होता है कि पं०
अम्बालाल जी ने वैयाकरण होते हुए भी ३६ वर्ष पूर्व छपे चान्द्र२० व्याकरण को नहीं देखा, और अन्य लेखकों के आधार पर अपना लेख लिख डाला।
उपलब्ध चान्द्रतन्त्र सम्पूर्ण इस समय जो चान्द्रव्याकरण जर्मन का छपा उपलब्ध है, वह असम्पूर्ण है। यद्यपि उसके छठे अध्याय के अन्त में समाप्तं चेदं २५ चान्द्रव्याकरणं शुभम् पाठ उपलब्ध होता है, तथापि अनेक प्रमाणों से
ज्ञात होता है कि चान्द्रव्याकरण में स्वरप्रक्रिया-निदर्शक कोई भाग अवश्य था, जो सम्प्रति अनुपलब्ध है। जिन प्रमाणों से चान्द्र व्याकरण की असम्पूर्णता, और उसमें स्वरप्रक्रिया का सद्भाव ज्ञापित होता है, उन में से कुछ इस प्रकार हैं
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१. द्र०-पृष्ठ ८१।