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प्राचार्य पानिणि से अर्वाचीन वैयाकरण ६५१ १–'व्याप्यात् काम्यच्" सूत्र की वृत्ति में लिखा है-'चकारः सतिशिष्टस्वरबापनार्थः-पुत्रकाम्यतीति' । सतिशिष्ट स्वर की बाधा के लिये चकारानुबन्ध करना तभी युक्त हो सकता है, जब कि उस व्याकरण में स्वरव्यवस्था का विधान हो ।
२-'तव्यनीयर्केलिमरः२ सूत्र की वृत्ति में 'तव्यस्य वा स्वरि- ५ त्वं वक्ष्यामः' पाठ उपलब्ध होता है। पाणिनीय शब्दानुशासन में विभिन्न स्वर की व्यवस्था के लिये 'तव्य' और 'तव्यत्' दो प्रत्यय पढ़े हैं। उनमें यथाक्रम अष्टाध्यायी ३१११३ और ६।१।१८५ से प्रत्ययाद्य. दात्तत्व तथा अन्तस्वरितत्व का विधान किया हैं। इससे विभिन्न स्वरों का विधान कैसे हो, इसके लिये वत्ति में कहा है-'तव्य का विकल्प १० स्वरों से स्वरितत्व कहेंगे'। यहां वृत्तिगत 'वक्ष्यामः' पद का निर्देश तभी उपपन्न हो सकता है, जब सूत्रपाठ में स्वरप्रक्रिया का निर्देश हो, . अन्यथा उसकी कोई आवश्यकता नहीं।
३.-चान्द्रवत्ति १।१।१०८ के 'जनविधोरिगपान्तानां च स्वरं वक्ष्यामः' पाठ में स्वरविधान करने की प्रतिज्ञा की है। १५
४.-'प्रोद्नाट ठट्' सूत्र की वृत्ति में लिखा है-'स्वरं तु वक्ष्यामः।
५–'अमावसो वा" सूत्र की वृत्ति में 'अनौ वस इति प्रतिषेधानाद्य दात्तत्वम' पाठ उपलब्ध होता है। इसमें 'अमावस्या' शब्द में ण्यत् के अभाव में यत् होने पर आद्य दात्त स्वर की प्राप्ति होती है, २० पर इष्ट है अन्तस्वरितत्व । इसके लिये वृत्तिकार ने 'अनौ वसः' सूत्र को उद्धृत करके प्राद्य दात्त स्वर का प्रतिषेध दर्शाया है । इससे स्पष्ट है कि वृत्तिकार द्वारा उद्धृत 'अनौ वसः' सूत्र चान्द्रव्याकरण में कभी अवश्य विद्यमान था। पाणिनि ने अन्तस्वरितत्व की सिद्धि के लिये 'अमावस्या' और 'अमावास्या' दोनों पदों में एक ण्यत् प्रत्यय का २५ विधान करके वृद्धि का विकल्प किया है।'
१. चान्द्रसून १।१ । २३ ॥ २. चान्द्रसूत्र १ । १ । १०५ ।। ३. चान्द्रसूत्र ३ । ४ । ६८॥ ४. चान्द्रसून १।१ । १३४ ॥
५. अमावसोरहं ग्यतोनिपातयाम्यवृद्धिताम् । तथैकवृत्तिता तयोः स्वरश्च मे प्रसिद्धयति ॥ महाभाष्य ३ । १ । १२२ ॥
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