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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
६-'लिपो नेश्च" सूत्र की वृत्ति में 'स्वरविशेषमष्टमे वक्ष्यामः' लिखा है । इस पाठ में स्पष्ट ही अष्टमाध्याय में स्वरप्रक्रिया का विधान स्वीकार किया है।
७-चान्द्रपरिभाषापाठ में एक परिभाषा है-स्वरविवौ व्यञ्जनमविद्यमानवत् । इस परिभाषा की आवश्यकता ही तब पड़ती है, जब चान्द्रव्याकरण में स्वरप्रकरण हो, अन्यथा व्यर्थ है।
इन सात प्रमाणों से स्पष्ट है कि चान्द्रव्याकरण में स्वरप्रक्रिया का विधान अवश्य था। षष्ठ प्रमाण से यह स्पष्ट है कि चान्द्र-तन्त्र
में आठ अध्याय थे। स्वरप्रक्रिया की विशेष आवश्यकता वैदिक १० प्रयोगों में होती है। अतः प्रतीत होता है कि चान्द्रव्याकरण में
वंदिकप्रक्रिया का विधान भी अवश्य था । उपयुक्त षष्ठ प्रमाणानुसार स्वरप्रक्रिया का निर्देश अष्टमाध्याय में था। अतः सम्भव है सप्तमाध्याय में वैदिक प्रक्रिया का उल्लेख हो। इसकी पुष्टि उसके धातुपाठ से भी होती है। चन्द्र ने धातुपाठ में कई वैदिक धातुएं पढ़ो
पं० हर्षनाथ मिश्र ने अपने 'चान्द्रव्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम्' निबन्ध में इस विषय पर विस्तार से लिखा है। हमने तो निदर्शनार्थ कतिपय निर्देश ही संकलित किये थे ।। ____ इस प्रकार स्पष्ट है कि चान्द्रव्याकरण के वैदिक और स्वर२० प्रक्रिया-विधायक सप्तम अष्टम दो अध्याय नष्ट हो चुके हैं ।
विक्रम को १२ वीं शताब्दी में विद्यमान भाषावृत्तिकार पुरुषोत्तमदेव से बहुत पूर्व चान्द्रव्याकरण के अन्तिम दो अध्याय नष्ट हो चुके थे । अत एव उस समय के वैयाकरण चान्द्रव्याकरण को लौकिक
शब्दानुशासन ही समझते थे । इसीलिये पुरुषोत्तमदेव ने ७ । ३ । ६४ २५ की भाषावृत्ति के 'चन्द्रगोमी भाषासूत्रकारो यङो वेति सूत्रितवान'
पाठ में चन्द्रगोमी को भाषासूत्रकार लिखा है । डा० बेल्वाल्कर ने भी
१. चान्द्रसूत्र १।१।१४५ ॥ २० चान्द्रपरिभाषा ८६, परिभाषा संग्रह, पृष्ठ ४८ ।
३. भोज ने सरस्वतीकण्ठाभरण के आठवें अध्याय में ही पहिले वैदिक ३० प्रकरण पढ़ा, तदनन्तर स्वरप्रकरण।