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आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण
चान्द्रव्याकरण को केवल लौकिक भाषा का व्याकरण माना है ।'
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अन्तिम अध्यायों के नष्ट होने का कारण
जैसे सिद्धान्तकौमुदी आदि प्रक्रियाग्रन्थों में स्वर वैदिक प्रक्रिया का अन्त में संकलन होने से उन ग्रन्थों के अध्येता स्वरप्रक्रिया को अनावश्यक समझ कर प्रायः छोड़ देते हैं । उसी प्रकार सम्भव है कि ५ चान्द्रव्याकरण के अध्येताओं द्वारा भी उसके स्वर वैदिक प्रक्रियात्मक अन्तिम दो अध्यायों का परित्याग होने से वे शनैः-शनैः नष्ट हो गये । पाणिनि ने स्वर वैदिक प्रक्रिया का लौकिक प्रकरण के साथ-साथ ही विधान किया है, इसलिये उसके ग्रन्थ में वे भाग सुरक्षित रहे ।
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अन्य ग्रन्थ
१. चान्द्रवृत्ति - इस का वर्णन अनुपद होगा ।
२. धातुपाठ ४. उणादिसूत्र
३. गणपाठ ५. लिङ्गानुशासन
इन ग्रन्थों का वर्णन इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग में यथास्थान किया जायगा ।
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६. उपसर्गवृत्ति - इसमें २० उपसर्गों के अर्थ और उदाहरण हैं । यह केवल तिब्बती भाषा में मिलता है । '
७. शिक्षासूत्र - इसमें वर्णोच्चारणशिक्षा सम्बन्धी ४८ सूत्र हैं । इसका विशेष विवरण 'शिक्षा शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ में लिखेंगे । इस शिक्षा का एक नागरी संस्करण हमने गत वर्ष' प्रकाशित किया २०
है ।
१. सिस्टम्स् अफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं ० ४४ ॥
२. सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैरा, नं० ४५ ।
३. वि० सं० २००६ में । द्वितीय संस्करण सं० २०२४ में ।
८. कोष — कोषग्रन्थों की विभिन्न टीकानों तथा कतिपय व्या करणग्रन्थों में चन्द्रगोमी के ऐसे पाठ उधृत हैं, जिन से प्रतीत होता है. कि चन्द्रगोमी ने कोई कोष ग्रन्थ भी रचा था ।
उज्ज्वलदत्त ने उणादिवृत्ति में चान्द्रकोश के अनेक उद्धरण उद्- २५ घृत किए हैं । उणादिवृत्ति में चान्द्रकोश का एक वचन निम्न प्रकार उद्धृत किया है—
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