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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
कालक्षय होता था। अतः देवों ने उस समय के महान् शाब्दिक आचार्य इन्द्र से प्रार्थना की-'आप शब्दोपदेश की कोई ऐसी सरल प्रक्रिया बतावें, जिससे अल्प परिश्रम और अल्प-काल में शब्दबोध हो
हो जावे' । देवों की प्रार्थना पर इन्द्र ने देवभाषा के प्रत्येक शब्द को ५ मध्य से विभक्त किया। इस प्रकार प्रकृतिप्रत्यय-विभागरूपी संस्कार द्वारा संस्कृत होने से देववाणी का दूसरा नाम 'संस्कृत' हुआ ।' अतएव 'दण्डी' अपने काव्यादर्श में लिखता है
संस्कृतं नाम दैवी वाग् अन्वाख्याता महर्षिभिः । १३।३ ॥
भारतीय आर्षवाङमय में देववाणी के लिये 'संस्कृत' शब्द का १० व्यबहार वाल्मीकीय रामायण और भरतनाट्यशास्त्र' में मिलता है।
रामायण में उसका विशेषण 'मानुषी' लिखा है। आचार्य यास्क और पाणिनि भी लौकिक-संस्कृत के लिये 'भाषा' शब्द का व्यवहार करते हैं।' इससे स्पष्ट है कि संस्कृत-भाषा उस समय जन-साधारण की भाषा थी।
१५ १. 'वाग्वै पराच्यव्याकृतावदत् । ते देवा इन्द्रमब्रुवन्, इमां नो वाचं व्याकुर्विति "तामिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत्' । तै० सं० ६।४७ ॥
'तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृतिप्रत्ययविभागं सर्वत्राकरोत्' । सायण ऋग्भाष्य उपोद्धात, पूना संस्करण भाग १, पृष्ठ २६ ।
'संस्कृते प्रकृतिप्रत्ययादिविभागः संस्कारमापादिते ..' । शिक्षाप्रकाश, २० शिक्षासंग्रह, पृष्ठ ३८७ । (काशी सं०) ।
२. 'वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्' । सुन्दरकाण्ड ३०।१७।। ३. अ० १७११, २५ ॥
४. काठक संहिता १४१५ में भी दैवी वाक् के प्रतिपक्षरूप में लौकिकसंस्कृत के लिये 'मानुषी' पद का व्यवहार मिलता है२५ तस्माद् ब्राह्मण उभयीं वाचं वदति । दैवीं च मानुषीं च करोति ।'
५. इवेति भाषायाम् । निरुक्त ११४ ॥ विभाषा भाषायाम् । अष्टा० ६।११ १८१॥
६. विस्तार के लिये देखिये पं० भगवद्दत कृत वैदिक-वाङ्मय का इतिहास भाग १, पृ० २६-४०, संस्क० २।