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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और हास २१ कल्पित काल विभाग
यह सर्वथा सत्य है कि एक ही व्यक्ति जब विभिन्न विषयों के ग्रन्थों का प्रवचन वा रचना करता है, तो उसमें विषयभेद के कारण थोड़ा बहुत भाषाभेद अवश्य होता है । पाश्चात्य विद्वान् अपने अधूरे भाषाविज्ञान के आधार पर इस सत्य-नियम की अवहेलना करके ५ संस्कृत वाङमय के रचनाकालों का निर्धारण करते हैं । वे उनके लिये मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल, सूत्रकाल आदि अनेक कालविभागों की कल्पना करत्ने हैं | संस्कृत-वाङमय का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि भारतीय वाङ् मय के इतिहास में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रदर्शित काल-विभाग कदापि नहीं रहा । पाश्चात्य विद्वानों ने विकासवाद के १० असत्य सिद्धान्त को मानकर अनेक ऐतिह्य विरुद्ध कल्पनाएं की हैं । हम अपने मन्तव्य की पुष्टि में तीन प्रमाण उपस्थित करते हैं । शाखा, ब्राह्मण, कल्पसूत्र और आयुर्वेदसंहितायें समानकालिक
भारतीय इतिहास - परम्परा के अनुसार वेदों की शाखाएं, ब्राह्मणग्रन्थ, कल्पसूत्र (= श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र ) और आयुर्वेद की १२ संहिताएं आदि ग्रन्थ समानकालिक हैं । अर्थात् जिन ऋषियों ने शाखा और ब्राह्मण ग्रन्थों का प्रवचन किया, उन्होंने ही कल्पसूत्र और आयुर्वेद की संहिताएं रचीं । भारतीय प्राचीन इतिहास के परम विद्वान् पं० भगवद्दत्त ने सर्वप्रथम इस सत्य - सिद्धान्त की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया । उन्होंने अपने प्रसिद्ध 'वैदिक वाङ्मय का २० इतिहास' भाग १, पृ० २५१ (द्वि० सं० पृ० ३५६ ) पर न्याय वात्स्यायनभाष्य के निम्न दो प्रमाण उपस्थित किये हैं ।
भारतीय वाङ्मय का प्रामाणिक आचार्य वात्स्यायन' अपने न्यायभाष्य २।१।६८ में लिखता है -
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१. वात्स्यायन आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य का ही नामान्तर है । यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है। इस विषय का एक सर्वथा नवीन प्रमाण हमने स्वसम्पादित दशपादी - उणादिवृत्ति के उपोद्घात में दिया है । प्राचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य का काल भारतीय पौराणिक कालगणनानुसार, जो सत्य सिद्ध हो रही है; विक्रम से लगभग १५०० वर्ष पूर्व है । पाश्चात्य ऐतिहासिक विक्रम से लगभग २५० वर्ष पूर्व मानते हैं ।
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