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________________ ३९२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जी ने अपने 'भारतवर्ष का इतिहास' में ७६ प्रमाणों से सिद्ध किया है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ही विक्रम संवत् प्रवर्तक प्रसिद्ध विक्रमादित्य था।' अष्टाङ्गहृदय की इन्दुटीका के सम्पादक ने भूमिका में लिखा है जर्मन विद्वान् वाग्भट्ट को ईसा की द्वितीय शताब्दी में मानते हैं।' ५ इन्दु के उपर्युक्त उद्धरण से इतना तो स्पष्ट है कि भर्तहरि किसी प्रकार वि० सं० ४०० से अर्वाचीन नहीं है। १०--श्री पं० भगवद्दत्तजी ने 'वैदिक वाङमय का इतिहास' भाग १ खण्ड २ पृष्ठ २०६ पर लिखा है-- 'अभी-अभी अध्यापक रामकृष्ण कवि ने सूचना भेजी है कि १० भर्तृहरि की मीमांसावृत्ति के कुछ भाग मिले हैं, वे शाबर से पहले - इस के अनन्तर 'प्राचार्य पुष्पाञ्जलि वाल्यूम' में पं० रामकृष्ण कवि का एक लेख प्रकाशित हुप्रा । उसमें पृष्ठ ५१ पर लिखा है 'वाक्यपदीयकार भर्तृहरि कृत जैमिनीय मीमांसा की वृत्ति शबर से १५ प्राचोन है ।' भर्तृहरिकृत महाभाष्य-दीपिका तथा वाक्यपदीय के अवलोकन से स्पष्ट विदित होता है कि भर्तृहरि मीमांसा का महान् पण्डित था। भर्तृहरि शवर स्वामी से प्राचीन है, इसको पुष्टि महाभाष्य-दीपिका से भी होती है । भर्तृहरि लिखता है धर्मप्रयोजनो वेति मोमांसकदर्शनम् । अवस्थित एव धर्मः, स त्वग्निहोत्रादिभिरभिव्यज्यो, तत्प्रेरितस्तु फलदो भवति । यथा स्वामो भूत्यैः सेवायां प्रेर्यते । १. भारतवर्ष का इतिहास द्वि० सं० पृष्ठ ३२६-३४ । हमें पं० भगवदत्त जी का उक्त मत मान्य नहीं हैं, क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का राज्य २५ भवन्ति (=उज्जैन) पर नहीं था। यह सर्वमान्य तथ्य है। २. अष्टाङ्गहृदय की भूमिका भाग १, पृष्ठ ५--केषांचिज्जर्मनदेशीयविपश्चितां मते खोस्ताब्दस्य द्वितीयशताब्द्यां वाग्भट्टो बभूव । ३. महाभाष्यदीपिका पष्ठ ३८, हमारा हस्तलेख, पूना सं० पृष्ठ ३१ । भर्तृहरि ने वाक्यपदीय १।१४५ को स्वोपज्ञ विवरण में 'न प्रकृत्या किञ्चत् ३० कर्मदृष्टमष्टं वा शास्त्रानुष्ठानातु केवलाद् धर्माभिव्यक्ति.' वचन द्वारा किसी मीमांसा का मत उद्धृत किया है। श्लोकवात्तिक न्यायरत्नाकर टीका (पष्ठ ४
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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