SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० महाभाष्य के टोकाकार ३६३ ___ श्लोकवातिक न्यायरत्नाकर टोका (पृष्ठ ४६ चौखम्बा, काशी) के अनुसार यह मत भर्तृ मित्र नामक प्राचीन मीमांसक का है। इसकी तुलना न्यायमञ्जरीकार भट्टजयन्त के निम्न वचन के . साथ करनी चाहिए वृद्धमीमांसका यागादिकर्मनिर्वत्यमपूर्व नाम धर्ममभिवदन्ति । ५ यागादिकर्मैव शाबरा ब्रुवते । इन दोनों पाठों की तुलना से व्यक्त होता है कि धर्म के विषय में मीमांसकों में तीन मत हैं। (क) भर्तृहरि के मत में धर्म नित्य है, यागादि से उसकी अभिव्यक्ति होती है-- (ख) वृद्ध मीमांसक यागादि से उत्पन्न होने वाले अपूर्व को धर्म मानते हैं। (ग) शबर स्वामी यागादि कर्म को ही धर्म मानता है । वह ।। मीमांसाभाष्य १११।२ में लिखता है यो हि यागमनुतिष्ठति तं धार्मिक इति समाचक्षते । यश्च यस्य १५ कर्ता स तेन व्यपदिश्यते। । - धर्म के उपर्युक्त स्वरूपों पर विचार करने से स्पष्ट है कि भट्ट जयन्तोक्त वृद्धमीमांसकं शबर से पूर्ववर्ती हैं, और भर्तृहरि उन वृद्धमीमांसकों से भी प्राचीन है । भर्तृहरि की महाभाष्यदीपिका में अन्यत्र भी अनेक स्थानों पर जी मीमांसक मतों का उल्लेख मिलता २० है, वे प्रायः शाबर मतों से नहीं मिलते। ११-हमारे मित्र पं० साधुराम एम० ए० ने अनेक प्रमाणों के आधार पर भर्तृहरि का काल ईसा की तृतीय शती दर्शाया है। १. १२-भारतीय जनश्रुति के अनुसार भर्तृहरि विक्रम का सहोदर भ्राता है । 'नामूला जनश्रुतिः' के नियमानुसार इसमें कुछ तथ्यांश २५ अवश्य है। चौखम्वा, काशी) के अनुसार यह मत भ'मित्र नामक प्राचीन मीमांसक का है। १. न्यायमञ्जरी पृष्ठ २७६, लाजरस प्रेस काशी की छपी। २. 'भर्तृहरिज़ डेट' जरनल गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट, भाग १५ अङ्क २-४ (सम्मिलित)।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy