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अष्टाध्यायी के वृत्तिकार
अष्टाध्यायी की अभिनव वृत्तियां
अष्टाध्यायी क्रम का पुनरुद्धार
हम पूर्व (पृष्ठ ३७९ - ३८०) लिख चुके हैं कि विक्रम की १८ वीं और १६वीं शताब्दी में प्रक्रियानुसारी सिद्धान्तकौमुदी के माध्यम से पाणिनीय व्याकरण के पठन-पाठन का अत्यधिक प्रचार होने से महाभाष्य और अष्टाध्यायीसूत्रपाठ के क्रमानुसार पाणिनीय शास्त्र के पठन-पाठन का लोप हो गया था । पाणिनीय सूत्र-क्रम से शास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का लोप हो जाने और प्रक्रिया ग्रन्थों के प्रचार के कारण पाणिनीय व्याकरण प्रत्यन्त दुरूह बन गया था ।' विक्रम की २० वीं शती के आरम्भ में पाणिनीय व्याकरण के अध्यनाध्यापन की १० इस कठिनाई के मूल कारण और उसे दूर करने का उपाय मथुरावासी वैयाकरणमूर्धन्य स्वामी विरजानन्द सरस्वती को उपज्ञात हुआ । तत्पश्चात् उन्होंने सिद्धान्तकौमुदी श्रादि प्रक्रिया ग्रन्थों के अध्यापन का परित्याग कर के पाणिनीय सूत्र-क्रम से पाणिनीय व्या करण के पठन-पाठन को आरम्भ किया । उनके शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस क्रम की महत्ता को समझ कर इसके प्रचार के लिये उन्होंने फर्रुखाबाद, मिर्जापुर, कासगंज ( एटा), छलेसर (अलीगढ़), काशी, लखनऊ और दानापुर आदि में पाठशालाएं स्थापित की और अपने सत्यार्थप्रकाश तथा संस्कारविधि आदि ग्रन्थों ग्रन्थों के पठन-पाठन की एक विशिष्ट पद्धति का उल्लेख
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किया ।"
स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षा से अनुप्राणित प्रार्यसमाज ने
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१. इस के विस्तार से परिज्ञान के लिये श्रागे 'पाणिनीय व्याकरण के प्रक्रिया ग्रन्थकार' नामक १७ वें अध्याय का प्रारम्भिक भाग देखें ।
२. द्र० – विरजानन्द प्रकाश, लेखक पं० भीमसेन शास्त्री, पृष्ठ ६०-७६ २५
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तु० सं० (सं० २०३५ वि० ) ।
३. द्र० - ऋ० दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, तथा उन को लिखे गये पत्र और विज्ञापनों का अभिनव संस्करण, भाग ४, परिशिष्ट ६ ( पृष्ठ ६५५–६६४), सन् १८८३ ।
४. द्र० – सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास के अन्त में; संस्कारविधि - ३० वेदारम्भ संस्कार के अन्त में ।