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________________ संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकार और ह्रास स्वकल्पित भाषाशास्त्र का पुट देकर उनका कालक्रम निर्धारित किया है। उसमें मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल, उपनिषत्काल, सूत्रकाल, और साहित्यकाल आदि अनेक काल्पनिक काल-विभाग किये हैं। उनके द्वारा उन्होंने संस्कृत-भाषा में यथाक्रम परिवर्तन दर्शाने का विफल प्रयास किया है । आधुनिक भाषाशास्त्रियों के द्वारा संस्कृत-भाषा में ५ जो परिवर्तन बताया जाता है, वह उसके ह्रास (=सङ्कोच) के कारण प्रतीत होता है। संस्कृत-भाषा में वस्तुतः कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ, यह हम अनुपद सिद्ध करेंगे। नूतन भाषामत की आलोचना पाश्चात्य भाषाशास्त्रियों ने संस्कृत-भाषा की उत्पत्ति और १० विकास के विषय में जो मत निर्धारित किये हैं, वे काल्पनिक हैं । भारतीय-वाङमय से उनकी किञ्चिन्मात्र पुष्टि नहीं होती। ग्रीक लैटिन, और हिटेटि आदि भाषाओं के जिस साहित्य के आधार पर वे भाषामतों के नियमों की कल्पना करते हैं,वह साहित्य पुरातन संस्कृतसाहित्य की अपेक्षा बहुत अर्वाचीन-काल का है। इतना ही नहीं, १५ पाश्चात्य विद्वान् जिस प्रागैतिहासिक काल की प्राकृत (=इण्डोयोरोपियन) भाषा से संस्कृत की उत्पत्ति मानते हैं,उसका कोई पूर्व व्यवहृत स्वरूप उन्होंने अभी तक उपस्थित नहीं किया । अतः इन आधुनिक भाषाशास्त्रियों ने भाषाविज्ञान के जो नियम निर्धारित किये हैं, वे सर्वथा काल्पनिक और अधरे हैं। अतः उन के द्वारा कल्पित भाषा. २० विज्ञान विज्ञान की कोटि से बहिर्भूत है। प्राधनिक भाषाशास्त्र की आलोचना एक स्वतन्त्र महत्त्वपूर्ण विषय है । अतः उसकी विशेष अालोचना के लिये पृथक् स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखने का हमारा विचार है। यहां हम उसके नियमों के अधरेपन को दर्शाने के लिये एक उदाहरण उपस्थित करते हैं २५ __ नूतन भाषाविज्ञान का एक नियम है—'वर्गीय द्वितीय और चतुर्थ वर्ण के स्थान में 'ह' का उच्चारण होता है, परन्तु 'ह' के स्थान में वर्गीय द्वितीय और चतुर्थ वर्ण नहीं होता।' .. यह नियम औत्सर्गिक माना जा सकता है, एकान्त सत्य नहीं। १. भाषाविज्ञान, श्री डा० मंगलदेव कृत, प्र० संस्करण पृष्ठ १८२॥ ३०
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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