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________________ ३२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के साथ तुलना करके हमने इसे विक्रम-समकालिक माना है। (ख) क्या तब निरुक्तसमुच्चय का कर्ता वररुचि, जिसे मीमांसक कात्यायन भी कहते हैं, इस वार्तिककार से भिन्न ठहर सकता हैं ? जब कि दोनों का नाम और वंश मिलते हैं। पर वहां वे उनके बीच सदियों का व्यवधान मानते हैं । (पृष्ठ १८४) उत्तर-वर्मा जी को तो यथाकथंचित् यह सिद्ध करना है कि वार्तिककार कात्यायन उतना प्राचीन व्यक्ति नहीं है, जितना भारतीय वाङमय से सिद्ध होता है । वास्तविक बात यह है कि इतिहास में केवल नाम और वंश के सादृश्य से न तो एकता सिद्ध हो १० सकती है, और न पार्थक्य का निषेध किया जा सकता है। यह तो पाश्चात्य मतानुयायियों की ही हठधर्मिता है कि नामसादृश्य मात्र से विभिन्न व्यक्तियों को एक बना देते हैं । बौद्ध ग्रन्थों में आश्वलायन आदि गोत्रनामवाले व्यक्तियों का उल्लेख देख कर उन्होंने इन्हें ही आश्वलायन आदि शाखा का प्रवक्ता मान लिया। उनका तो यह १५ दुःसाहस सकारण है । उन्हें तो प्राचीन आर्ष वाङमय को भी बलात् खींच कर अधिक से अधिक १००० ईसा पूर्व तक लाना है। परन्तु वर्मा जी के पाश्चात्य मत के अन्धानुकरण का प्रयोजन विचारणीय है। एक प्राचीन वररुचि कात्यायन का पुत्र है, और वह कात्यायन याज्ञवल्क्य का पुत्र है, यह मैंने कल्पना से नहीं लिखा (प्रमाण ऊपर २० देखें)। हां, याज्ञवल्क्य पौत्र कात्यायन वररुचि को वार्तिककार सिद्ध करने के लिए मैंने जो अनेक प्रमाण दिये हैं, उन की वर्मा जी ने कुछ भी समीक्षा न करके 'तब क्या यह अनिवार्य है कि इन्हें पिता-पुत्र ही स्वीकार किया जाये ? यह सम्बन्ध तीन चार पीढ़ी के अन्तर से क्यों नहीं ?' (पृष्ठ १८४), इतना ही लिख कर सन्तोष २५ किया है । इतिहास में कल्पना का कोई स्थान नहीं । भारतीय इतिहास को जानबूझ कर भ्रष्ट करने के लिये कल्पना करने का दषित उपक्रम तो पाश्चात्य विद्वानों ने किया है । वर्मा जी भी इन्हीं के अनुगामी हैं। (ग) इस से पूर्व वे (मीमांसक) स्वयं ही वार्तिककार और ३० प्रातिशाख्य के कर्ता को एक ही बताकर उसे पाणिनि का समकालिक सिद्ध कर चुके हैं । पदे पदे मत बदलने की अपेक्षा यह अधिक उचित होगा कि उक्त दोनों को अलग-अलग ही मानें। (पृष्ठ १८४)
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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