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________________ आचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण । रचना सब से पूर्व आचार्य देवनन्दी ने की है । अतः जैनेन्द्रव्याकरण की विशेषता 'एकशेष प्रकरण न रखना है' । परन्तु यह विशेषता जैनेन्द्र व्याकरण की नहीं है, और ना ही प्राचार्य पूज्यपाद की स्वो - पज्ञा है । जैनेन्द्र व्याकरण से कई शताब्दी पूर्व रचित चान्द्रव्याकरण में भी एकशेष प्रकरण नहीं है । चन्द्राचार्य को एकशेष की अना- ५ वश्यकता का ज्ञान महाभाष्य से हुआ । उसमें लिखा है - 'प्रशिष्य एकशेष एकेनोक्तत्वात् श्रर्थाभिधानं स्वाभाविकम्' ।' अर्थात् शब्द की अर्थाभिधान शक्ति के स्वाभाविक होने से एक शब्द से भी अनेक अर्थों की प्रतीत हो जाती है, अतः एकशेष प्रकरण अनावश्यक है । महाभाष्य से प्राचीन अष्टाध्यायी की माथुरी वृत्ति के अनुसार भगवान् पाणिनि ने स्वयं एकशेष की प्रशिष्यता का प्रतिपादन किया था । अतः एकशेष प्रकरण को न रखना जैनेन्द्रव्याकरण की विशेषता नहीं है, यह स्पष्ट है | प्रतीत होता है कि टीकाकारों ने प्राचीन चान्द्रव्याकरण और महाभाष्य आदि का सम्यग् अनुशीलन नहीं किया । अत एव उन्होंने जैनेन्द्र की यह विशेषता लिख दी । १० ६६१ १५ जैनेन्द्र व्याकरण की दूसरी विशेषता अल्पाक्षर संज्ञाएं कही जा सकती हैं, परन्तु यह भी प्राचार्य देवनन्दी की स्वोपज्ञा नहीं है । पाणिनीय तन्त्र में भी 'घ' 'घु' 'टि' आदि अनेक एकाच् संज्ञाएं उपलब्ध होती हैं । शास्त्र में लाघव दो प्रकार होता है - शब्दकृत और अर्थकृत । शब्दकृत लाघव की अपेक्षा अर्थकृत लाघव का महत्त्व २० विशेष है । अतः परम्परा से लोकप्रसिद्ध बह्वक्षर संज्ञानों के स्थान में नवीन अल्पाक्षर संज्ञाएं बनाने में किंचित् शब्दकृत लाघव होने पर भी प्रार्थकृत गौरव बहुत बढ़ जाता है, और शास्त्र विलष्ट हो जाता है । त एव पाणिनीय तन्त्र की अपेक्षा जैनेन्द्र व्याकरण क्लिष्ट है । पञ्चाङ्ग व्याकरण-जैनेन्द्र व्याकरण सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, १. तुलना करो - पाणिन्युपज्ञमकालकं व्याकरणम् । काशिका २।४।२१।। 'चन्द्रोपज्ञमसंज्ञकं व्याकरणम् । चान्द्रवृत्ति २।२।६८ । २५ २. महाभाष्य ११२ ॥६४॥ ३. माथुर्यां तु वृत्तावशिष्यग्रहणमापादमनुवर्तते । भाषावृत्ति १ । २।५० ।। देखो पूर्व पृष्ठ ४८४ ॥ ३० ४. देखो पूर्व पृष्ठ २४६, टि०५ । .
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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