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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास.
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चिन्त्य है | प्रतीत होता है, उसने इस उदाहरण का भाव नहीं समझा । सूत्रस्थ उदाहरणों की 'दाक्षादिभिः प्रोक्तानि शास्त्राण्यधीयते ' व्याख्या में 'दाक्षादिभि:' पाठ शुद्ध है, वहां 'दाक्ष्यादिभिः' पाठ होना चाहिए । संग्रह ग्रन्थ की प्रौढता का अनुमान पतञ्जलि के द्वारा निर्दिष्ट ५ निम्न श्लोक से भी होता है । -
पतञ्जलि ने महाभाष्य २।३।६६ में दाक्षायण विरचित संग्रह की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है-
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शोभना खलु दाक्षाणस्य संग्रहस्य कृतिः ।
इन उद्धरणों से संग्रह ग्रन्थ का वैशिष्ट्य सूर्य के समान विस्पष्ट है । संग्रह के उद्धरण - संग्रह के उद्धरण अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । भर्तृहरि - विरचित वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड की स्वोपज्ञ - टीका में संग्रह के १० (दस) वचन उद्धृत हैं। श्री पं० चारुदेवजी १५ ने स्वसम्पादित वाक्यपदीय ब्रह्मकाण्ड के अन्त में उन्हें संगृहीत कर दिया है। प्रथम और दशम वचन का द्वितीय उद्धरण का स्थान हम ने ढूंढा है । आज तक संग्रह के जितने वचन उपलब्ध हुए हैं, उन्हें हम नीचे उद्धृत करते हैं
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किरति चर्करीतान्तं पचतीत्यत्र यो नयेत् । प्राप्तिज्ञं तमहं मन्ये प्रारब्धस्तेन संग्रहः ॥"
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१. नहि किञ्चित् पदं नाम रूपेण नियतं क्वचित् । पदानां रूपमर्थो वा वाक्यार्थादेव जायते ||
२. अर्थात् पदं साभिधेयं पदाद् वाक्यार्थनिर्णयः । पदसंघातजं वाक्यं वर्णसंघातजं पदम् ॥3 ३. शब्दार्थयोरसंभेदे व्यवहारे पृथक् क्रिया । यतः शब्दार्थयोस्तत्त्वमेकं तत्समवस्थितम् ॥*
१. महा० ७|४|१२|| कैयट ने पतञ्जलि के भाव को संभवतः न समझकर संग्रह शब्द का अर्थं 'साधुशब्दराशि' लिखा है
२. वाक्यपदीय टीका लाहौर संस्क० पृष्ठ ४२ । यह वचन पुण्यराज ने वाक्यपदीय २।३१९ की व्याख्या में भी उद्धृत किया है। वहां तृतीय चरण का पाठ 'पदानामर्थरूपं च' है, सम्भवतः वह अशुद्ध है ।
३. वही, पृष्ठ ४३ ॥
४. वही, पृष्ठ ४३ ॥