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संग्रहकार व्याडि
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टीका में उदधृत संग्रह के पाठों से विदित होता है कि संग्रह वाक्यपदीय के समान प्रधानतया व्याकरण का दार्शनिक ग्रन्थ था । पाणिनीय श्र
- अष्टक - व्याख्यान -- नागेशकृत भाष्यप्रदीपोद्योत ४ | ३ | ३९ में लिखा है --
एवं च संग्रहादिषु तदुदाहरणदानमसंगतं स्यात् ।
इस से प्रतीत होता है कि संग्रह में कहीं कहीं अष्टाध्यायी के सूत्रों के उदाहरण भी दिये गए थे ।
न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि काशिकाविवरणपञ्जिका ७।२1११ में लिखता है—
श्वभूतिव्याडि प्रभूतयः श्रच कः हेतुना चर्श्वभूतो गकार: प्रश्लिष्टः इत्येवमाचक्षते ।
कितीत्यत्र द्विककार निर्देशेन १०
कः किति ( ७/२/११ ) सूत्र की उक्त व्याख्या सम्भवतः संग्रह में की होगी 1
यह भी संभव हो सकता है कि व्याडि ने अष्टाध्यायी की कोई व्याख्या लिखी हो । इसकी पुष्टि कृष्णचरित के पूर्व उद्धृत श्लोक १५ के दाक्षिपुत्रवचोव्याख्यापटु पद से भी होती है।
संग्रह में १४ सहस्र पदार्थों की परीक्षा -- महाभाष्य के 'संग्रहे तावत् प्राधान्येन परीक्षितम्' इस वचन की व्याख्या में भर्तृहरि लिखता है -
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चतुर्दशसहस्राणि वस्तूनि श्रस्मिन् संग्रहग्रन्थे ( परीक्षितानि) ।' अर्थात् संग्रह में १४ सहस्र पदार्थों की परीक्षा की थी । यदि भर्तृहरि का यह वचन ठीक हो: तो संग्रह का एक लक्ष श्लोक परिमाण अवश्य रहा होगा ।
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संग्रह की प्रतिष्ठा --संग्रह ग्रन्थ किसी समय अत्यन्त प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता था । काशिका ६।२२६९ के 'कुमारीदाक्षा:' उदाहरण से व्यक्त होता है कि अनेक व्यक्ति कुमारी की प्राप्ति ( विवाह) के लिये झूठमूठ अपने को दाक्षि- प्रोक्त ग्रन्थ के ज्ञाता बताया करते थे । काशिकाकार ने इस उदाहरण की जो व्याख्या की है, वह
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१. हमारा हस्तलेख पृष्ठ २६, पूना सं० पृ० २१ । २. तुलना करो पूर्व पृष्ठ ३०२, टि०७ मै उद्धृत 'अजर्घा' यो न
श्लोक के साथ ।
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