________________
३०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
महाभाष्यकार जैसा विवेचनात्मक बुद्धि रखने वाला व्यक्ति जिस कृति को सुन्दर मानता हो, उसकी प्रामाणिकता और उत्कृटता में क्या सन्देह हो सकता है ?
संग्रह का स्वरूप-संग्रह ग्रन्थ चिरकाल से लुप्त है । इसलिए ५. इसका क्या का स्वरूप था, यह हम नहीं कह सकते । इस के जो
उद्धरण उपलब्ध हुए हैं, उनके अनुसार इसके विषय में कुछ लिखा जाता है__ संग्रह में ५ अध्याय-चान्द्र व्याकरण ४।१।६२ की वृत्ति में एक
उदाहरण है-पञ्चक: संग्रहः । इसकी 'अष्टकं पाणिनीयम्' उदाहरण १. से तुलना करने पर विदित होता है कि संग्रह में पांच अध्याय थे ।
संग्रह का परिमाण-वाक्यपदीय का टीकाकार पुण्यराज लिखता है
इह पुरा पाणिनीयेऽस्मिन् व्याकरणे व्याड्य परचितं लक्षग्रन्थपरिमाणं संग्रहाभिधानं निबन्धमासीत् ।' १५ नागेश भो संग्रह का परिमाण लक्ष श्लोक परिमित मानता है।'
संग्रहसूत्र--महाभाष्य ४।२।६० में एक उदाहरण है-सांग्रहसूत्रिकः । इस से प्रतीत होता है कि संग्रहग्रन्थ सूत्रात्मक था। ___ संग्रह दार्शनिक ग्रन्थ था-पतञ्जलि महाभाष्य के प्रारम्भ में
लिखता है२० संग्रहे तावत् प्राधान्येन परीक्षितम्-नित्यो वा स्यात् कार्यो
वा । तत्रोक्ता: दोषाः, प्रयोजनान्यप्युक्तानि । तत्र त्वेष निर्णय:-यद्यव नित्योऽथापि कार्यः, उभयथापि लक्षणं प्रवय॑म् ।।
आगे पुनः लिखता है--
संग्रहे तावत् कार्यप्रतिद्वन्द्विभावान्मन्यामहे नित्यपर्यायवाचिनो २५ ग्रहणमिति ।
इन दोनों उद्धरणों से, तथा भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय की स्वोपत्र
१. वाक्यपदीय टीका, काशी संस्क० पृष्ठ २८३ ।
२. संग्रहो व्याडिकृतो लक्षश्लोकसंख्यो ग्रन्थ इति प्रसिद्धिः । नवाह्निक, निर्णयसागर संस्क० पृष्ठ २३ । ३. अ० १ । पा० १ प्रा० १॥