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पाणिनोयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य
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(४।२।११२ ) इत्यण्' । अर्थात् पिशलि और काशकृत्स्न में ( अपत्यार्थक इञ्प्रत्ययान्त) आपिशलि और काशकृत्स्नि शब्दों से प्रोक्त अर्थ में इञश्च सूत्र से अण् प्रत्यय होता है । तथा काशकृत्स्नोय पद में अपत्यार्थक अण्प्रत्ययान्त काशकृत्स्न शब्द से प्रोक्त अर्थ में वृद्धाच्छः (४।२।११४) से छ ( = ईय) प्रत्यय होता है ।
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काशकृत्स्न और काशकृत्स्न का एकत्व -- यद्यपि काशकृत्स्न और काशकृत्स्न नामों में अपत्य-प्रत्यय का भेद है, तथापि दोनों नाम एक ही आचार्य के हैं । अकारान्त कशकृत्स्न शब्द से अपत्य अर्थ में अत इञ् (अष्टा० ४।१।६५ ) से इत्र होकर काशकृत्स्नि शब्द निष्पन्न होता है । और उसी कशकृत्स्न से अपत्यार्थ में सामान्यविधायक १० तस्यापत्यम् ( श्रष्टा० ४। १ । ६२ ) से अण् होकर काशकृत्स्न शब्द बनता है । यद्यपि श्रत इञ् सूत्र तस्यापत्यम् का अपवाद है, तथापि क्वचिदपवादविषयेऽपि उत्सर्गोऽभिनिविशते' (कहीं-कहीं अपवाद = विशेष- विधायकसूत्र के विषय में उत्सर्ग = सामान्यसूत्र की भी प्रवृत्ति हो जाती है ) नियम से सामान्य प्रण प्रत्यय भी हो जाता है । इसी १५ नियम के अनुसार भगवान् वाल्मीकि ने दाशरथि राम के लिये दाशरथ शब्द का भी प्रयोग किया है । अत: जिस प्रकार एक ही दशरथ - पुत्र राम के लिए दाशरथि और दाशरथ दोनों शब्द प्रयुक्त
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१. इसी प्रकार पाणिनि शब्द से भी प्रोक्त अर्थ में प्रण होकर 'पाणिनि ' शब्द निष्पन्न होगा । लोक प्रसिद्ध पाणिनीय पद पाणिन से निष्पन्न होता है । २० द्र०—न्यास ४।३।१०१ ।। पूर्वनिर्दिष्ट भाष्यवचन 'पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्' में अर्थनिदर्शन मात्र है, न कि विग्रह । पाणिनि शब्द आपिशलि और काशकृत्स्नि के समान गोत्रवाची है, उससे ' इञश्च' ( ४ |२| ११२ ) से अण् ही होगा । सिद्धान्तकौमुदीकार भट्टोज दीक्षित ने ४ |२| ११२ में पाणिनि शब्द से 'पाणिनीय' प्रयोग की निष्पत्ति के लिये सरल मार्ग को छोड़ कर जो क्लिष्ट २५ कल्पना की है । वह चिन्त्य है ।
२. सीरदेव - परिभाषावृत्ति, संख्या ३३; परिभाषेन्दुशेखर, सं० ५६ । यही नियम स्कन्दस्वामी ने 'अपवादविषये क्वचिदुत्सर्गो दृश्यते' शब्दों से उद्धृत किया है । द्र०- - निरुक्त - टीका, भाग २, पृ० ८२ ॥
३. प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली । रामा० युद्धका० १४ | ३ || काशिकाकार ३० ने इस प्रयोग में शेषविवक्षा में ' तस्येदम् ' ( ४ | ३ | १२० ) से अण् प्रत्यय माना है, वह चिन्त्य है ।