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३६६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ महाभाष्यदीपिका, वाक्यपदीय और उसकी ठीका
समानकर्तृक हैं महाभाष्यदीपिका, वाक्यपदीय और उसकी स्वोपज्ञटीका की परस्पर तुलना करने से विदित होता है कि इन तीन ग्रन्थों का कर्ता ५ एक व्यक्ति ही है । यथा- .. ...........।
महाभाष्यदीपिका-यथैव गतं गोत्वमेवमिङ्गितादयोऽप्यर्थतः महिप्यादिषु दृष्टं व्युत्पत्त्यापि कर्मण्याश्रीयमाणो गमिवत्, विशेषणं दुरान्वाख्यानम्, उपाददानो गच्छति गर्जति गदति वा गौरिति ।'.... वाक्यपदीय-कैश्चिन्निर्वचनं भिन्न गिरतेगर्जतेर्गमः । ..
. गवतेर्गदतेर्वाप्ति यौरित्यत्र दर्शितम् ॥ वाक्यपदीय स्वोपज्ञटीका-यथैव हि गमिक्रिया जात्यन्तरेकस... मवायिनीभ्यो गमिक्रियाभ्योऽत्यन्तभिन्ना तुल्यरूपत्वविधौ त्वन्तरेणैव
गमिमभिधीयमाना गौरिति शब्दव्युत्पत्तिकर्मणि निमित्तत्वेनाश्रीयते
तथैव गिरति गर्जति गदति इत्येवमादयः साधारणाः सामान्यशब्द१५ निबन्धनाः क्रियाविशेषास्तैस्तैराचार्यं!शब्दव्युत्पादनक्रियायां परि
गृहीताः ।
- इसी प्रकार अन्यत्र भी तीनों ग्रन्थों में परस्पर महती समानता है, जिनसे इन तीनों ग्रन्थों का एककर्तृत्व सिद्ध है । वाक्यपदीय की
रचना वि० सं० ४०० से. अर्वाचीन नहीं है, यह हम पूर्व सप्रमाण २० निरूपण कर चुके हैं । अतः महाभाष्य की टीका भी वि० सं० ४०० से अर्वाचीन नहीं है।
भट्टिकाव्य-भट्टिकाव्य के विषय में दो मत हैं । भट्टि का जयमंगलाटीका का रचयिता ग्रन्थकार का नाम भट्टिस्वामो लिखता है। मल्लीनाथ आदि अन्य सब टीकाकार भटिकाव्य को भर्तहरिविरचित मानते हैं । पञ्चपादो उणादिवृत्तिकार श्वेतवनवासी भट्टि को भर्तृहरि के नाम से उद्धृत करता है। हमारा विचार है, ये दोनों मत ठीक हैं । ग्रन्थकार का अपना नाम भट्टिस्वामी है, परन्तु उसके असाधारण वैयाकरण होने के कारण वह औपाधिक भर्तृहरि नाम से
१. हस्तलेख पृष्ठ ३, पूना सं० पृष्ठ ३। २. काण्ड २ कारिका १७५ । १० ३. काण्ड २ कारिका १७५ की टीका, लाहौर संस्क० पृष्ठ ६२।
४. तथा च भर्तृकाव्य प्रयोगः । पृष्ठ ८३, १२६ ।