SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७ पाणिनि और उसका शब्दानुशासन २०६ वस्तुतः मस्करी शब्द का संबन्ध वेणुवाचक मस्कर शब्द के साथ ही है । इसीलिए पाणिनि से पूर्ववर्ती ऋक्तन्त्रकार ने मस्करो वेणुः (४।७।६) सूत्र में मस्कर शब्द का ही निर्देश किया और उसी से मस्करी को गतार्थ माना । पतञ्जलि की मा कृत कर्माणि' व्याख्या मस्करी ग्रहण के आनथक्य' के प्रत्याख्यान के लिए प्रौढिवाद मात्र ५ है। यदि इस व्याख्या को प्रामाणिक भी माना जाए, तब भी मस्करी का मूल वेणुवाचक मस्कर शब्द ही होगा । उस का अर्थ भी है-- मा क्रियतेऽनेनेति । जिस से अनर्थरूप कर्मों का निषेध होता है वह मस्कर वेणु अर्थात् दण्ड। और इसी मा मर=मस्कर निर्वचन को मानकर पाणिनि ने सुडागम का विधान किया है। वस्तुतः मस्कर १० और मस्करी दोनों पद मस्क गतौ धातु से निष्पन्न हैं । - वास्तविक स्थिति तो यह है कि मस्करी को मंखली का संस्कृत रूप मानना ही भ्रान्तिमूलक है। महाभारत में निर्दिष्ट मङ्कि ऋषि के कुल में उत्पन्न होने से ही मङ्किल का मंखलि उपभ्रंश बना है। प्रत एव भगवती सूत्र (१५) आदि में मंखलि को मंख का पुत्र कहना १५ युक्त है। जैनागमों में गोसाल को मंखलिपुत्त भी कहा है। ५–बैवर के मत की आलोचना तो पाश्चात्त्यमतानुगामी डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने ही भले प्रकार कर दी है, अतः उस का यहां पुनः लिखना पिष्टपेषणवत् होगा । १. माकृत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसी । महाभाष्य ६।१११५४॥ २. मस्करिग्रहणं शक्यमकर्तुम् । कथं मस्करी परिव्राजक इति ? इनिनेतन्मत्त्व येन सिद्धम् । मस्करोऽस्यास्तीति मस्करी । महाभाष्य ६।१।१५४॥ ३. क्षीरस्वामी, अमरटीका २।४।१६० ।। ४. यह धातु पाणिनीय धातुपाठ के प्राच्य उदीच्य आदि सभी पाठों में पठित है । ५. मस्क+बाहुलकाद् अरः । शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृष्ठ २५ ६५१ । इसी प्रकार 'अरिनि' प्रत्यय होकर मस्कस्न् ि । यद्वा-मस्कते इति ... मस्कः, अच् । तस्मान्मत्वर्थीयो र:, मस्करः,पुनस्तस्मान्मत्वर्थीय इनिः मस्करिन । ६. मङ्कि ऋषि द्वारा गीत अनेक श्लोक महाभारत शान्तिपर्व अ० १७७ । में पठित हैं। यह प्रकरण मङ्कि-गीता के नाम से प्रसिद्ध है। ७. पाणिनि कालीन भारतवर्ष, पृष्ठ ३७६ । ८. पाणिनि कालीन भारतवर्ष, पृष्ठ ४७६ ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy