________________
२०८
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
वररुचि को नन्द का समकालिक लिख दिया है । इस भ्रान्ति की पुष्टि वातिककार वररुचि को कौशाम्बी निवासी लिखने से भी होती है। कौशाम्बी प्रयाग के निकट है। पतञ्जलि महाभाष्य में वार्तिक
कार को स्पष्ट शब्दों में दाक्षिणात्य कहता है । इस विरोध से स्पष्ट ५ है कि कथासरित्सागर की कथानों के आधार पर किसी इतिहास को कल्पना कगना नितान्त चिन्त्य है ।
इतना ही नहीं पाश्चात्त्य ऐतिहासिकों ने तो महापद्म नन्द का काल भी बहुत अर्वाचीन बना दिया है । भारतीय पौराणिक काल गणनानुसार, जो उत्तरोत्तर शोध द्वारा सत्य सिद्ध हो रही है नन्द का काल विक्रम से पन्द्रह सोलह सौ वर्ष पूर्व है।
३-यदि श्रमण शब्द का व्यवहार बौद्ध साहित्य में हो, और वह भी केवल बौद्ध परिव्राजकों के लिए होता तो उस के आधार पर कथंचित पाणिनि को बौद्ध काल में रखा जा सकता थ , परन्तु श्रमण
शब्द तो तथागत बुद्ध से सैकड़ों वर्ष पूर्व प्रोक्त शतपथ ब्राह्मण १४ । १५ ७।१।२२ तैत्तिरोय आरण्यक २७१ में भी उपलब्ध होता है । सभी व्याख्याकारों ने श्रमण शब्द का अर्थ परिबाट सामान्य किया है।
अष्टाध्यायो (२।११७०) में निर्दिष्ट कुमारश्रमणः में कुमार शब्द बालक का वाचक नहीं है, अपितु अकृत-विवाह (कुंवारे) का वाचक
है। जैसे वृद्धकुमारी में कुमारा शब्द कुंवारी के लिये प्रयुक्त है। २० अतः कुमारश्रमण वे परिव्राजक कहाते हैं जो ब्रह्मचर्य से ही संन्यास
ग्रहण करते हैं। ___ ४-यदि तुष्यतु दुर्जनः न्यार से अष्टाध्यायी में प्रयुक्त मस्करी शब्द को मंखलि शब्द का संस्कृत रूप मान भी लें तो मस्करिन में
प्रयुक्त मत्त्वर्थक इनि प्रत्यय का कोई अर्थ न होगा और न उस का २५ मूलभूत वेणवाचक मस्कर शब्द के साथ कोई संबंध होगा। इतना
ही नहीं, यदि पाणिनि की दृष्टि में मस्करी शब्द मंखलि गोसाल का ही वाचक था तो उस के अर्थनिर्देश के लिए पाणिनि ने सामान्य परिव्राजक पद का निर्देश क्यों किया ?
१. लम्पक १, तरङ्ग ४। ३० २. प्रियतद्धिता दाक्षिणात्या: । महा० ११, प्रा० १।
३. वृद्धकुमारी-न्याय, महाभाष्य ८।२।३॥