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महाभाष्यप्रदीप के व्याख्याकार
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विशेष ग्रन्थ का उद्धरण-नारायण ने पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् (अ० ६।३।१०६) सूत्र के प्रदीपविवरण में निरुक्त ११२० का साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुः आदि पाठ उद्धृत करके लिखा हैतथा च व्याख्यातम्
प्रथमा प्रतिभानेन द्वितीयास्तूपदेशतः।
अभ्यासेन तृतीयास्तु वेदार्थान् प्रतिपेदिरे ॥ इति यह निरुक्त का व्याख्यान केरलदेशीय नीलकण्ठ गार्य विरचित निरुक्तश्लोकवातिक (१।६।१९८-१९६) से उद्धृत किया है । दोनों के समानदेशीय होने से इस निरुक्तव्याख्यान का उद्धृत होना स्वाभाविक है । निरुक्तश्लोकवातिककार का काल न्यूनातिन्यून विक्रम की १४वी १० शताब्दी है । यह ग्रन्थ रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा छप चुका है।
पाश्चर्य-'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' के सम्पादक ने नारायणीय प्रदीपविवरण का मुद्रण अ० ३ से प्रारम्भ किया है । सम्पादक ने हमारे द्वारा संकेतित ४ स्थानों के हस्तलेखों में से केवल होशियारपुरीय विश्वेश्वरानन्द शोध संस्थान में विद्यमान हस्तलेख को १५ छोड़ कर अन्य किन्हीं हस्तलेखों का उपयोग नहीं किया है। भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान का संख्या ५४ का हस्तलेख तो अ० ३ से अ० ८ पर्यन्त (बीच में कहीं-कहीं त्रुटित) का होने से उन के लिये बहुत उपयोगी था।
७-रामसेवक (सं० १६५०-१७०० वि० रामसेवक नाम के किसी विद्वान् ने 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्या' की रचना की थी। इसका एक हस्तलेख अडियार (मद्रास) के पुस्तकालय में हैं । देखो-सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ७३ ॥
परिचय-रामसेवक के पिता का नाम देवीदत्त था । रामसेवक के पुत्र कृष्णमित्र ने भट्टोजि दीक्षित विरचित 'शब्दकौस्तुभ' की २५ 'भावप्रदीप' और 'सिद्धान्तकौमुदी' की 'रत्नार्णव' नाम्नी व्याख्या लिखी है । (इन का वर्णन आगे यथास्थान किया जायेगा) । इस से सम्भव है रामसेवक का काल सं० १६५०-१७०० के मध्य रहा हो ।
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८. नारायणशास्त्री (सं० १७१०-१७३० वि०) नारायण शास्त्रीकृत 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्या' का निर्देश प्राफेक्ट