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अष्टाध्यायी के वृत्तिकार
'ओरियण्टल पत्रिका' में प्रकाशित किया था । इसका परिबृंहित संस्करण संवत् २०१० वि० में सरस्वती भवन काशी की 'सारस्वती सुषमा' में प्रकाशित किया था । इसका पुनः परिबृंहित संस्करण हमने वि० सं० २०२१ में पुन: प्रकाशित किया है ।
भागवृत्ति व्याख्याता — श्रीधर
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कृष्ण लीलाशुक मुनि ने 'दैवम्' ग्रन्थ की 'पुरुषकार' नाम्नी व्याख्या लिखी है । उसमें भागवृत्ति का उद्धरण देकर कृष्ण लीलाशुक मुनि लिखता है -
'भागवृत्तौ तु सोकृसेकृ इत्यधिकमपि पठ्यते । तच्च सीकृ सेचने इति श्रीधरो व्याकरोत् एतानष्टौ वर्जयित्वा इति चाधिक्यमेवमुक्त- १० कण्ठमुक्तवान्' ।"
इस उद्धरण से व्यक्त होता है कि श्रीधर ने भागवृत्ति की व्याख्या लिखी थी । कृष्ण लीलाशुक मुनि ने श्रीधर के नाम से दो वचन और उद्धृत किये हैं । देखो - 'दैवं - पुरुषकार' पृष्ठ १४, ६० । माघवीया धातुवृत्ति में श्रीकर अथवा श्रीकार नाम से इसका निर्देश १५ मिलता है। धातुवृत्ति के जितने संस्करण प्रकाशित हुए हैं, वे सव अत्यन्त भ्रष्ट हैं । हमें श्रीकार वा श्रीकर श्रीधर नाम के ही अपभ्रंश प्रतीत होते हैं ।
श्रीधर नाम के अनेक ग्रन्थकार हुए हैं । भागवृत्ति की व्याख्या किस श्रीधर ने रची, यह अज्ञात है ।
काल - कृष्ण लीलाशुक मुनि लगभग १३ वीं शताब्दी का ग्रन्थकार है । अत: उसके द्वारा उद्धृत ग्रन्थकार निश्चय ही उससे प्राचीन है । हमारा विचार है कि श्रीधर मैत्रेयरक्षित से प्राचीन है । इसका आधार 'पुरुषकार' पृष्ठ ६० में निर्दिष्ट श्रीधर और मैत्रेय दोनों के उद्धरणों की तुलना में निहित है ।
१. सन १९४० में 3
२. दैवम् - पुरुषकार, पृष्ठ १४, ३.
देखो - हमारा संस्करण ।
२०
२५
१५ हमारा संस्करण |
४. नृतिनन्दीति वाक्ये नाघृवर्जं नृत्यादीन् पठित्वैतान् सप्त वजत्वेति वदन् श्रीकरोऽप्यत्रैवानुकूलः । धातुवृत्ति पृष्ठ १८ । तुलना करो - ' तथा च श्रीधरो नृत्यागेन नृत्यादीन् पटित्वा एतान् सप्त वर्जयित्वा इत्याह । दैवम् ६० ॥ ३० यहां धातुवृत्ति में उद्धृत श्रीकर निश्चय ही भागवृत्ति- टीकाकार श्रीधर है ।
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