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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
हार होता है । अनेक विद्वान् संहिताओं के उपर्युक्त दो विभाग नहीं मानते । उनके मत से सब संहिताएं समान हैं, परन्तु यह ठीक नहीं।' महाभाष्यकार के मतानुसार चारों वेदों को ११३१ संहिताएं हैं। यह संख्या कृष्ण द्वैपायन व्यास और उस के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा प्रोक्त संहितारों की है। व्यास से प्राचीन ऐतरेय प्रभृति संहिताएं इन से पृथक् है। पाणिनि के सूत्रों और गणों में निम्न चरणों तथा शाखा ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है___४।३।२०२-तैत्तिरीय, वारतन्तीय, खाण्डिकीय, प्रौखीय । ४।३।
१०४-हारिद्रव, तौम्बुरब, प्रौलप, पालम्ब, पालङ्गः, कामल, पारुण, १० प्रार्चाभ, ताण्ड, श्यामायन, । गणपाठ ४।३।१०६-शौनक, वाजसनेय,
साङ्गरव, शाङ्गरव, साम्पेय, शाखेय, ( ?, शाभीय), खाडायन, स्कन्ध, स्कन्द, देवदत्तशठ, रज्जुकण्ठ, रज्जुभार, कठशाठ, कशाय, तलवकार, पुरुषासक, अश्वपेय । ४।३।१०७-कठ, चरक ।
४।३।१०८-कालाप । ४।३।१०६-छागलेय । ४।३।१२८-शाकल । १५ ४।३।१२६-छन्दोग, औक्थिक, याज्ञिक, बहवच, । गणपाठ ६।२।३७
काण्ड का प्रारम्भ । यहां हरिस्वामी ने स्पष्टतया वेद और शाखामों का पार्थक्य माना है। "पार्यं जगत" पत्र (लाहौर) सं० २००४ ज्येष्ठ मास के अङ्क में मेरा 'वैदिक सिद्धान्त विमर्श' लेख सं० ४ ।
१. देखो पृष्ठ २६७ की टिप्पणी १। २० २. एकशतमध्वयु शाखा: सहस्रवा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह वृच्यम् नवधाथर्वणो वेदः । महा० १११। प्रा० १॥
३. चरणों और शाखाओं में भेद है । शाखा चरण के अवान्तर विभाग का नाम है । तुलना करो-भोजवर्मा ( १२ वीं शताब्दी)का ताम्रपत्र-जमद
ग्निप्रवराय वाजसनेयचरणाय यजुर्वेदकाण्वशाखाध्यायिने....."। वैदिक वाङ्मय २५ का इतिहास, भाग १, पृष्ठ २७३ (द्वि० सं०) पर उद्धृत । चरण के लिए
प्रतिशाखा शब्द का, और शाखा के लिए अनुशाखा शब्द का भी व्यवहार होता है। इस के लिए देखिए इसी ग्रन्थ का 'प्रातिशाख्य के प्रवक्ता और व्याख्याता' शीर्षक अध्याय (भाग २)। पाश्चात्य तथा उनके अनुयायी
भारतीय विद्वानों ने 'चरण' का अर्थ 'स्कूल' किया है। श्री वासुदेवशरण ३० अग्रवाल ने 'वैदिक-विद्यापीठ' माना है ।(पाणिनीकालीन भारतवर्ष, पृष्ठ २६०)।
दोनों का अभिप्राय एक ही है । यह विचार भारतीय ऐतिह्य के विपरीत है।