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आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय
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चरक के उक्त पाठ से संस्कर्ता अथवा प्रवक्ता के नए प्रवचन-कार्य का प्रयोजन भी व्यक्त हो जाता है। . प्रतिसंस्कृत-इस शब्द का प्रयोग भी आयुर्वेद की चरक संहिता के प्रत्यध्याय के अन्त में पठित निम्न वचन में मिलता है
'अग्निवेश-कृते तन्त्रे चरक-प्रतिसंस्कृते'। सुकृत-महाभाष्य १।४।८४ में कहा है
शाकल्येन सुकृतां संहितामनुनिशम्य देवः प्रावर्षत् । यदि यहां संहिता शब्द से मन्त्रसंहिता अभिप्रेत है, तब तो यहां प्रोक्त अर्थ में ही सुकृत शब्द का व्यवहार है, यह स्पष्ट है । क्योंकि पाणिनि के मतानुसार संहिताएं प्रोक्त हैं । संहिता शब्द का व्यवहार १० पदपाठ के लिए भी होता है । इसलिये यदि यहां संहिता पद से शाकल्य की पदसंहिता अभिप्रेत हो, तो उस का भी सामवेश प्रोक्त के अन्तर्गत ही होगा। पदसंहिता का कृत विभाग में भी कथंचित् समावेश किया जा सकता है। सुविहित-महाभाष्य ४।२।६६ में लिखा है
___पाणिनीयं महत् सुविहितम् पाणिनीय शास्त्र प्रोक्त है, वह कृत नहीं है। इसलिए यहां सूविहितम् का अर्थ सुप्रोक्तम् ही है, सुकृतम् नहीं है । ___इसी प्रकार महाभाष्य २।३।६६ में पठित 'शोभना खलु पाणिनेः सूत्रस्य कृतिः वचन में तथा काशिका २।३।६६ में 'विचित्रा हि सूत्र- २० स्य कृति: पाणिनेः पाणिनिना वा' वचन में कृति का अर्थ प्रवचन ही समझना चाहिए। ___ इस-प्रोक्त-विभाग में पाणिनि ने अनेक प्रकार के ग्रन्थों का निर्देश किया है । हम यहां उनका सूत्रानुसार उल्लेख न कर के विषयविभागानुसार उल्लेख करेंगे । यथा
संहिता-सहिताएं दो प्रकार की हैं। एक मूलरूप, और दूसरी व्याख्यारूप ।' दूसरी प्रकार की संहिताओं का शाखा शब्द से व्यव
___ १. वैदस्यापौरुषेयत्वेन स्वतःप्रामाण्ये सिद्धे तच्छाखानामपि तद्धेतुत्वात् प्रामाण्यमिति बादरायणादिभिः प्रतिपादितम् । शतपथ हरिस्वामी-भाष्य, प्रथम