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२६६ संस्कृत व्याकरण का इतिहास ध्यान रहे कि सम्पूर्ण भारतीय प्राचीन वाङमय में मन्त्र दृष्ट माने गए हैं, कृत नहीं।
२. प्रोक्त प्रोक्त शब्द का अर्थ है–कहा हुअा, पढ़ाया हुआ। पढ़ाना स्वरचित ग्रन्थों का भी होता है, और पररचित ग्रन्थ का भी। 'तेन प्रोक्तम्" सूत्र से दोनों प्रकार के प्रवचन में प्रत्यय होता है । यथापाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्, अन्येन कृता माथुरेण प्रोक्ता माथुरी वृत्तिः ।
'प्रवचन' शास्त्र-रचना की एक विशिष्ट विधा है। यह भारतीय १० वाङ्मय में ही उपलब्ध होती है और वह भी आर्ष वाङमय में। इस
विधा के ग्रन्थों में प्रवक्ता प्राचीन ग्रन्थों को ही देश काल के अनुरूप ढाल कर प्रवचन करता है । अतः प्रोक्त ग्रन्थों में प्राचीन ग्रन्थों के बहुत से अंश पूर्ववत् ही संगृहीत होते हैं, और कुछ परिवर्तित रूप में ।
प्रवचन-विधा में प्रवक्ता को अहंकार का त्याग करना पड़ता है। १५ अहंकार का त्याग नीरजस्तम ऋषि लोग ही कर सकते हैं । यतः ऐसे
आचार्यों के प्रोक्त ग्रन्थों में सम्पूर्ण शब्दानुपूर्वी स्वीय नहीं होती है, अतः इनका 'कृत' संज्ञक विधा में अन्तर्भाव नहीं होता है।
प्राचीन वाङमय में प्रोक्त अर्थ में संस्कृत तथा प्रतिसंस्कृत शब्द का भी व्यवहार मिलता है। कहीं-कहीं पर सुकृत और सुविहित २० शब्द का भी प्रयोग देखा जाता है।
संस्कृत-इस शब्द का व्यवहार आयुर्वेदीय चरक संहिता के सिद्धिस्थान अ० १२ में इस प्रकार मिलता है
विस्तारयति लेशोक्तं संक्षिपत्यतिविस्तरम् ॥ ६५ ॥ संस्कर्ता कुरुते तन्त्र पुराणं च पुनर्नवम् । अतस्तन्त्रोत्तममिदं चरकेणातिबुद्धिना ।। ६६ ।।
संस्कृतं तत्त्वसंपूर्ण... ......... ... ..." अर्थात् - [संस्कर्ता पूर्वाचार्यों द्वारा] संक्षेप में कहे गए विशिष्ट अर्थ को विस्तार से कहता है, और विस्तार से कहे गए अभिप्राय का
संक्षेप करता है। इस प्रकार संस्कर्ता पुराने शास्त्र को पुनः नया ३. अर्थात् स्वदेशकाल के अनुसार उपयोगी बना देता है.....। १. अष्टा० ४।३।१०१॥
२. महाभाष्य ४१३१.१॥