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________________ अष्टाध्यायी के वार्तिककार ३४६ भर्तृहरि ने भी अपनी महाभाष्यदीपिका में चार स्थानों में 'इह भवन्तस्त्वाहुः" निर्देश करके कुछ मत उद्धृत किये हैं। महाभाष्यदीपिका पृष्ठ २६६° में 'इन्द्रभवस्त्वाहुः' पाठ है । यह अशुद्ध प्रतीत है, यहां भी कदाचित् ‘इह भवन्तस्त्वाहुः' पाठ हो। पतञ्जलि और भर्तृहरि किसी एक ही प्राचार्य के मत उधत करते हैं, वा भिन्न ५ भिन्न के, यह भी विचारणीय है। __ न्यायवार्तिक ४।१।२१ में भी इह भवन्तः का निर्देश करके सांख्य मत का निर्देश किया है । इनके अतिरिक्त महाभाष्य में अन्य अपर आदि शब्दों से अनेक आचार्यों के मत उद्धृत हैं, परन्तु उनके नाम अज्ञात हैं। ___महाभाष्यस्थ वार्तिकों पर एक दृष्टि यद्यपि महाभाष्य में प्रधानतया कात्यायनीय वार्तिकों का उल्लेख है, तथापि उस में अन्य वार्तिककारों के वार्तिक भी उद्धृत हैं। कुछ वार्तिकों के रचयिताओं के नाम महाभाष्य से विदित हो जाते हैं, अनेक वार्तिकों के रचयिताओं के नाम महाभाष्य में नहीं लिखें, यह १५ हम पूर्व लिख चुके हैं। इन सब वार्तिकों के अतिरिक्त महाभाष्य में बहुत से ऐसे वचनों का संग्रह है, जो वार्तिक प्रतीत होते हैं, परन्तु वार्तिक नहीं हैं । महाभाष्यकार ने अन्य व्याकरणों से उन-उन नियमों का संग्रह किया है, कहीं पूर्वाचार्यों के शब्दों में और कहीं स्वल्प शब्दान्तर से । यथा १.-महाभाष्य ६।१।१४४ में वचन है-समो हितततयोर्वा लोपः । यह वार्तिक प्रतीत होता है, परन्तु महाभाष्य १।१।२७ में इसे अन्य वैयाकरों का वचन लिखा है-इहान्ये वैयाकरणाः समस्तते विभाषा लोपमारभन्ते, समो हितततयोर्वा इति । महाभाष्य ६।१।१४४. में अन्य कई नियम उद्धृत हैं। वे अन्य २५ वैयाकरणों के ग्रन्थों से संग्रहीत प्रतीत होते हैं। महाभाष्यकार ने . १. हस्तलेख, पृष्ठ ६१, १०७, १२५, २७२ । पूना सं० पृष्ठ ५१, ८६, १०८ (?), २०७। २. इह भवन्तः सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थां प्रकृति वर्णयन्ति । पृष्ठ ४५८ । ३. समो हितततयोर्वा लोपः। संतुमुनोः कामे। मनसि च । अवश्यमः कृत्ये। ३०
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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