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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतितास
'चन्द्रगर्भसूत्र' में लिखित घटना की जैनेन्द्र के उदाहरण में उल्लिखत घटना के साथ तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के उदाहरण में उक्त महत्त्वपूर्ण घटना का ही संकेत है। प्रतः उक्त उदाहरण से यह भी विदित होता है कि विदेशी आक्रान्तानों ने गङ्गा के पास-पास का प्रदेश जीतकर मथुरा को अपना केन्द्र बनाया था। इसलिए महेन्द्र को सेना ने मथुरा का ही घेरा डाला । ___ जैनेन्द्र के उक्त उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि उक्त ऐतिहासिक घटना प्राचार्य पूज्यपाद के जीवनकाल में घटी थी। अतः
प्राचार्य पूज्यपाद और महाराज महेन्द्रकुमार-कुमारगुप्त समका१० लिक हैं।
महेन्द्रकुमार का काल-महाराज महेन्द्रकुमार अपरनाम कुमारगुप्त का काल पाश्चात्त्य विद्वानों ने वि० सं० ४७०-५१२ (= ४१३४५५ ई०) माना है । भारतीय कालगणनानुसार कुमारगुप्त का काल
विक्रम सं० ६६-१३६ तक निश्चित है । क्योंकि उसके शिलालेख १५ उक्त संवत्सरों के उपलब्ध हो चुके हैं। यदि भारतीय कालगणना को
अभी स्वीकार न भी किया जाए, तो भी पाश्चात्त्य मतानुसार इतना तो निश्चित है कि पूज्यपाद का काल विक्रम की पांचवीं शती के उत्तरार्ध से षष्ठी शती के प्रथम चरण के मध्य है।
___ इस विवेचना से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के 'अरुण२० महेन्द्रो मथुराम्' उदाहरण में महेन्द्र को विदेशी आक्रामक मेनेन्द्र = मिनण्डर समझना भी भारी भ्रम है ।
___ डा० काशीनाथ बापूजी पाठक की भूल स्वर्गीय डा० काशीनाथ बापूजी पाठक का शाकटायन व्याकरण के सम्बन्ध में एक लेख 'इण्डियन एण्टिक्वेरी' (जिल्द ४३ पृष्ठ २०५२५ २१२) में छपा है । उसमें उन्होंने लिखा है
"पाणिनीय व्याकरण में वार्षगण्य पद की सिद्धि नही है । जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरण में इस का उल्लेख मिलता है। पाणिनि के शरद्वच्छनकर्भाद् भृगुवत्सानायणेषु सूत्र के स्थान में जनेन्द्र का सूत्र
१. यहां हमने संक्षेप से लिखा है। विशेष देखो-जैन साहित्य और ३० इतिहास' प्र० सं० पृष्ठ ११७.११६ ।
२. अष्टा० ४।१।१०२॥