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अष्टाध्यायी के वृत्तिकार
४६५ है-शरद्वच्छनकरणाग्निशर्मकृष्णदर्भाद् भगुवत्साग्रायणब्राह्मणवसिष्ठे।' इसी का अनुकरण करते हुए शाकटायन ने सूत्र रचा है-शरद्वच्छनकरणाग्निशर्मकृष्णदर्भाद् भृगुवत्सवसिष्ठवृषगणब्राह्मणामायणे ।' की अमोघा वृत्ति में 'आग्निशर्मायणो वार्षगण्यः, प्राग्निमिरन्यः' व्याख्या की है। वार्षगण्य सांख्यकारिका के रचयिता ईश्वरकृष्ण का दूसरा ५ नाम है। चीनी विद्वान् टक्कुसु के मतानुसार ईश्वरकृष्ण वि० सं० ५०७ के लगभग विद्यमान था। जैनेन्द्र व्याकरण में उसका उल्लेख होने से जैनेन्द्र व्याकरण वि० सं० ५०७ के बाद का है ।
इस लेख में पाठक महोदय ने चार भयानक भूलें की हैं । यथा
प्रथम-सांख्यशास्त्र के साथ संबद्ध वार्षगण्य नाम सांख्यकारिका- १० कार ईश्वरकृष्ण का है, यह लिखना सर्वथा अशुद्ध है। सांख्यकारिका की युक्ति-दीपिका नाम्नी व्याख्या में 'वार्षगण्य' और 'वार्षगणाः' के नाम के अनेक उद्धरण उद्धत हैं, वे ईश्वरकृष्ण-विरचित सांख्यकारिका में उपलब्ध नहीं होते । प्राचार्य भर्तृहरि विरचित वाक्य पदीय ब्रह्मकाण्ड में 'इदं फेनो न' और 'अन्धो मणिमविन्दद्' दो पद्य १५ पढ़े हैं। इन में से द्वितीय पद्य तैत्तिरीय आरण्यक १।११।५ में तथा योगदर्शन ४।३१ के व्यासभाष्य में स्वल्प पाठभेद के साथ उपलब्ध होता है । वाक्यपदीय के प्राचीन व्याख्याकार वृषभदेव के मतानुसार ये पद्य सांख्यशास्त्र के षष्टितन्त्र ग्रन्थ के हैं। अनेक लेखकों के मत में षष्टितन्त्र भगवान वार्षगण्य की कृति है। यदि यह ठीक हो, तो २० मानना होगा कि वार्षगण्य आचार्य तैत्तिरीय प्रारण्यक के प्रवचनकाल अर्थात विक्रम से लगभग तीन सहस्र वर्ष से प्राचीन है । महाभारत में भी सांख्यशास्त्रकार वार्षगण्य का बहुधा उल्लेख मिलता है। इस से स्पष्ट है कि वार्षगण्य अत्यन्त प्राचीन आचार्य है। उसका ईश्वरकृष्ण के साथ सम्बन्ध जोड़ना महती भ्रान्ति है।
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१. शब्दार्णव ३।१।१३४॥ २. २।४।३६॥ ३. कारिका ८, ६ ।
४. इदं फेन इति । षष्टितन्त्रग्रन्थश्चायं यावदभ्यपूजयदिति । पृष्ठ १८ । . ५. देखो-हमारे मित्र विद्वद्वर श्री० पं० उदयवीरजी शास्त्री 'कृत 'सांख्य
दर्शन का इतिहास' पृष्ठ ८६। ६. 'सांख्य दर्शन का इतिहास' ग्रन्थ में माननीय शास्त्री जी ने वार्षगण्य को तैत्तिरीयारण्यक से उत्तर काल का ३० माना है। परन्तु हमारा विचार है कि वह तैत्तिरीयारण्यक से पूर्ववर्ती है।