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संस्कृतव्याकरण त्र-शास्त्र का इतिहास
द्वितीय-जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरण के जिन सूत्रों के उद्धरण देकर पाठक महोदय ने वार्षगण्य पद की सिद्धि दर्शाई है, वह भी चिन्त्य है। उक्त सूत्रों में वार्षगण्य' पद की सिद्धि नहीं है,
अपितु उन में बताया है कि यदि अग्निशर्मा वृषगण-गोत्र का होगा, ५ तो उसका अपत्य 'आग्निशर्मायण' कहलावेगा । और यदि वह वृषगणगोत्र का न होगा, तो उसका अपत्य 'प्राग्निमि' होगा। इस बात को पाठक महोदय द्वारा उद्धृत अमोघा वृत्ति का पाठ स्पष्ट दर्शा रहा है। व्याकरण का साधारण सा भो बोध न होने से कैसी भयङ्कर भूलें होती हैं, यह पाठक महोदय के लेख से स्पष्ट है।
तृतीय-जैनेन्द्र व्याकरण के नाम से पाठक महोदय ने जो सूत्र उद्धृत किया है, वह जैनेन्द्र व्याकरण का नहीं है वह है जैनेन्द्र व्याकरण के गुणनन्दी द्वारा परिष्कृत 'शब्दार्णव' संज्ञक संस्करण का।' गुणनन्दी का काल विक्रम की दशम शताब्दी है। अतः उसके आधार
पर प्राचार्य पूज्यपाद का काल निर्धारण करना सर्वथा प्रयुक्त है। १५ चतुर्थ-पाठक महोदक जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरण के जिन
सूत्रों में वार्षगण्य पद का निर्देश समझकर पाणिनीय व्याकरण में उसका अभाव बताते हैं, वह भी अनुचित है । क्योंकि पाणिनि ने वार्षगण्य गोत्र के आग्निशर्मायण की सिद्धि के लिये नडादिगण में
'अग्निशमन् वृषगणे' सूत्र पढ़ा है । अतः पाणिनि उसका पुनः सूत्रपाठ २० में निर्देश क्यों करता ? प्राचार्य पूज्यपाद ने भी इस विषय में पाणिनि
का ही अनुकरण किया है। उसने आग्निशर्मायण वार्षगग्य का साधक 'अग्निशमन् वृषगणे' सूत्र नडादिगण में पढ़ा है। (पाठक महोदय ने जैनेन्द्रव्याकरण नाम से जो सूत्र उद्धृत किया है, वह मूल जैनेन्द्र
व्याकरण का नहीं है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं) । शास्त्र के पूर्वापर २५ का भले प्रकार अनुशीलन किये विना उसके विषय में किसी प्रकार
का मत निर्धारित कर लेने से कितनी भयङ्कर भूलें हो जाती हैं, यह भी इस विवेचन से स्पष्ट है।
१. जैन साहित्य और इतिहास प्र० सं०, पृष्ठ १००-१०६ । तथा इसी इतिहास' का पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण' नामक १७ वा अध्याय ।
२. 'जैन साहित्य और इतिहास' प्र० सं०, पृष्ठ १११, तथा इसी इतिहास का १७ वां अध्याय ।
३. गणपाठ ४ । १०५ ॥ ४. जैनेन्द्र गणपाठ ४११९८॥