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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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किया जाये, तो उस से निम्न दो बातें अत्यन्त स्पष्ट होती हैं
१. प्राकृत के आधार पर संस्कृत के शतशः विलुप्त शब्दों का पुनरुद्धार हो सकता है।
२. नाटकान्तर्गत प्राकृत की जो संस्कृत छाया इस समय उपलब्ध ५ होती है, वह अनेक स्थानों में प्राकृत से अति दूर है। आधुनिक पंडित
प्राकृत से प्रतीयमान संस्कृत शब्दों का प्रयोग करने में हिचकिचाते हैं । अतः उन स्थानों में प्राकृत से असम्बद्ध संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं। हम उदाहरणार्थ भास के नाटकों से कुछ प्रयोग उपस्थित करते हैप्राकृत मुद्रित संस्कृत मूल संस्कृत नाटकचक्र पृष्ठ अणुकरेदि अनुकरोति अनुकरति करअन्तः कुर्वन्तः • करन्तः पेक्खामि पश्यामि प्रेक्षामि
पेक्खन्तो पश्यन्ती प्रेक्षन्ती १५ रोदामि रोदिमि
रोदामि चञ्चलाप्रन्ति विन चञ्चलायेते इव चञ्चलायन्ति इव | मे अक्खीणि मेऽक्षिणी मेऽक्षीणि' । क्या अपशब्द साधु शब्द का स्मरण कराकर अर्थ
का बोध कराते हैं ? अनेक वैयाकरणों का यह मत है कि असाधु शब्द के श्रवण से साधु शब्द की स्मृति होती है । और उस से अर्थ का बोध होता है । साक्षात् असाधु शब्द से अर्थ का बोध नहीं होता। यह मन्तव्य प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध है। सर्वथा अनाड़ी पुरुष जिन को साधु शब्द-ज्ञान
की स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते उन का अपनी भाषा के २५ शब्दों से ही अर्थ-प्रतीति लोक में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है । इसीलिये महा वैयाकरण भर्तृहरि ने लिखा है -
साधुस्तेषामवाचकः । बाक्यपदीय १११५४॥ अर्थात्-अपशब्दों से प्रतीयमान अर्थ का साधु शब्द वाचक नहीं
१. द्र०-'अक्षीणि मे दर्शनीयानि, पादा मे सुकुमाराः। महाभाष्य ३० १।४।२१॥