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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास
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होता । वृद्धव्यवहार से बालक असाध शब्दों का उस के अर्थ के साथ संकेत ग्रहण करते हैं और उसे संकेत ज्ञान से असाधु शब्द से सीधा अर्थ-बोध होता है।
उपसंहार इस प्रकार हमने इस अध्याय में भारतीय इतिहास के अनुसार ५ संस्कृत-भाषा की प्रवत्ति और उस के विकास तथा ह्रास पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। प्राधनिक कल्पित भाषाशास्त्र का अधरापन, और उस से उत्पन्न होने वाली भ्रान्तियों का भी कुछ दिग्दर्शन कराया है । आधुनिक भाषाशास्त्र की समीक्षा' एक महान् कार्य है, उस के लिये स्वतन्त्र ग्रन्थ की आवश्यकता है। अतः हमने यहां उस १० की विस्तार से विवेचना नहीं की। इसी प्रकार संस्कृत-भाषा समस्त भाषाओं की प्रकृति है, उसी से समस्त अपभ्रंश भाषाएं प्रवृत्त हुई हैं, इस की विवेचना भी एक स्वतन्त्र विषय है।
हमारे इस प्रकरण को लिखने का मुख्य प्रयोजन यह दर्शाना है । कि संस्कृत-भाषा में आदि से लेकर आज तक कोई मौलिक परिवर्तन १५ नहीं हुआ। आधुनिक पाश्चात्त्य भाषाशास्त्री संस्कृत-भाषा में जो परिवर्तन दर्शाते हैं, वह केवल प्राचीन अतिविस्तृत संस्कृत-भाषा में उत्तरोत्तर शब्दों के संकोच (= ह्रास) के कारण प्रतीत होता है। वस्तुतः उस में परिवर्तन कुछ भी नहीं हुआ। ___ इसी प्रकार पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा की गई संस्कृत-वाङमय के २० कालविभाग की कल्पना भी सर्वथा प्रमाणशून्य है। भारतीय इतिहास में अनेक ऋषि ऐसे हैं, जिन्होंने वेदों की शाखा, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, कल्पसूत्र, आयुर्वेद और व्याकरण आदि अनेक विषयों का प्रवचन किया। इन ग्रन्थों में जो भाषाभेद आपाततः प्रतीत होता है, वह रचनाशैली और विषय की विभिन्नता के कारण है। यह बात २५ प्रत्यात्म वेदनीय है। अतः संस्कृत वाङमय में पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा ‘कल्पित कालविभाग' और 'संस्कृत-भाषा में परिवर्तन' ये दोनों ही पक्ष उपपन्न नहीं हो सकते ।।
अब हम अगले अध्यय में संस्कृत-भाषा के व्याकरण की उत्पत्ति और इस की प्राचीनता पर लिखेंगे ।
१. इस के लिये देखिये श्री पं० भगवद्दत्तजी कृत 'भाषा का इतिहास' ।