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दूसरा अध्याय व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति और प्राचीनता
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ब्रह्मा से लेकर दयानन्द सरस्वती' पर्यन्त समस्त भारतीय विद्वानों का मत रहा है कि संसार में जितना ज्ञान प्रवृत्त हुआ, उस सब का आदिमूल वेद है । प्रतएव स्वायंभुव मनु ने वेद को सर्वज्ञानपय कहा है । मनु आदि महर्षि उसी ज्ञान से संसार को प्रकाश दे रहे थे, अतः वे ऐसा क्यों न कहते ?
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व्याकरण का आदिमूल
वेद ही
इस सिद्धान्तानुसार व्याकरणशास्त्र का आदि मूल भी १० है । वैदिक मन्त्रों में अनेक पदों की व्युत्पत्तियां उपलब्ध होती हैं
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। वे
इस सिद्धान्त को पोषक हैं । यथा
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यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः । ऋ० १।१६४।५० ॥ ये सहांसि सहसा सहन्ते । ऋ० ६।६६।६ ॥ पूर्वोरश्नन्तावश्विना । ऋ०८।५।३१ ।। स्तोतृभ्यो महते मघम् । ऋ० १।११।३ ॥ धान्यमसि घिनुहि देवान् । यजु० १२० ।।
1. we may divide the whole of sanskrit literature, beginning with the Rig-Veda ending with Dayananda's Introduction to his edition of the Rig-VedaIndia : what can it teach us, Lecture lll of Maxmu'ar.
२. सर्वज्ञानमयो हि सः । मनु० २|७ | मेघातिथि की टीका ॥
३. यज्ञः कस्मात् ? प्रख्यातं यजति कर्मेति नैरुक्ताः । निरुक्त ३।१६ ॥ यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् । भ्रष्टा० ३ | ३|१० ॥
४. सहधातोः 'असुन्' (दश० उ० ९ ४६; पं० उ० ४ १९० ) इत्यसुन् । ५. अश्विनौ यद् व्यश्नुवाते सर्वम् । निरुक्त १२१ ॥
६. मधमिति धननामधेयम्, मंहतेर्दानकर्मणः । निरुक्त १७ ॥
७. घिनोतेर्धान्यम् । महाभाष्य ५|२| ४ ||