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________________ व्याकरणशास्त्र की उत्पति और प्राचीनता ५६ केतपूः केतं नः पुनातु ।' यजु० १११७ ।। येन देवाः पवित्रेणात्मानं पुनते सदा । साम० उ० ५।२।८।५॥ तीर्थस्तरन्ति । अथर्व० १८।४।७ ।। यददः सं प्रयतीरहावनदता हते । तस्मादा नद्यो नाम स्थ । अथर्व० ३।१३।१ ॥ ५ तदाप्नोदिन्द्रों वो यतीस्तस्मादापो अनुष्ठन । अथर्व० ३।१३।२ शब्दशास्त्र के प्रमाणभूत आचार्य पतञ्जलि मुनि ने व्याकरणाध्ययन के प्रयोजनों का वर्णन करते हुए चत्वारि शृङ्गा, चत्वारि वाक्, उत त्वः, सक्तुमिव, सुदेवोऽसि ये पांच मन्त्र उद्धृत किये हैं, और उन की व्याख्या व्याकरणशास्त्रपरक की है। पतञ्जलि से १० बहुत प्राचीन यास्क ने भी चत्वारि वाक् मन्त्र की व्याख्या व्याकरण शास्त्रपरक लिखी है। व्याकरण पद जिस धातु से निष्पन्न होता है, उस का मूल-अर्थ में प्रयोग यजु० १९७७ में उपलब्ध होता है । व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति व्याकरणशास्त्र की उत्पत्ति कब हुई, इस का उत्तर अत्यन्त दुष्कर १५ है। हां, इतना निस्सन्दिग्धरूप से कहा जा सकता है कि उपलब्ध वैदिक पदपाठों (३२०० वि० पू०) की रचना से पूर्व व्याकरणशास्त्र १. केतोपपदात् पुनाते: 'क्विप् च' (अष्टा० ३।२१७६) इति क्विप् । २. पवित्रं पुनाते: । निरुक्त ५।६॥ पुनाते: ष्ट्रन । द्र०-अष्टा० ३।२।१८५, १८६ ॥ ३. पातृतुदिवचिरिचिसिचिभ्यस्थक् । पंच० उणादि २७ ॥ ४. नद्यः कस्मान्नदना इमा भवन्ति शब्दवत्यः । निरुक्त २।२४ ॥ ५. आप प्राप्नोते: । निरुक्त ६।२६; प्राप्नोतेह्र स्वश्च । पं० उ० २॥५६॥ ६. ऋ० ४१५८२३॥ ७. ऋ० १३१६४१४५ ॥ ८. ऋ० १०७१॥४॥ ६. ऋ० १०७१।२ ॥ १०. ऋ० ८।६।१२ ॥ ११. महाभाष्य प्र० १, पा० १, प्रा० १ ॥ १२. नामख्याते चोपसर्गनिपाताश्चेति वैयाकरणा: । निखत १३६॥ १३. दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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